Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना
अवास्तवादी हैं। इन्हें निषेधमुख या अनेवंबादी भी कह सकते हैं। जैसे शन्यवादी-विज्ञानवादी बौद्ध और शाङ्कर वेदान्त आदि दर्शन ।
प्रकृति से अनेकान्तबादी होते हुए भी जैन दृष्टिका स्वरूप एकान्ततः वास्तववादी ही है । क्योंकि उसके मतानुसार भी इन्द्रिजन्य मतिज्ञान आदिमें भासित होनेवाले भावों के सत्यत्व का वही स्थान है जो पारमार्थिक केवलज्ञान में भासित होनेवाले भावों के सत्यत्व का स्थान है अर्थात् जनशतानुसार दोनों सत्य की मात्रामें अन्तर है, योग्यता व गुण में नहीं । केवलज्ञान में द्रव्य और उनके अनन्त पर्याय जिस यथार्थता से जिस रूप से भासित होते हैं उसी यथार्थता और उसी रूपसे कुछ द्रय और उनके कुछ ही पर्याय मति आदि ज्ञान में भी भासित हो सकते हैं । इसी जैन दर्शन अनेक सूक्ष्मतम भावों की अनिर्वचनीयता को मानता हुआ भी निर्वचनीय भावों को यथार्थ मानता है । जब कि शून्यवादी और शाबर वेदान्त आदि ऐसा नहीं मानते।
२. जैन दृष्टि की अपरिवर्तिष्णुता जैन दृष्टि का जो वास्तववादिस्व स्वरूप ऊपर बतलाया गया यह इतिहास के प्रारम्भ से अब तक एक ही रूप में रहा है या उसमें कभी किसी के द्वारा थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ है, यह एक बड़े महत्व का प्रश्न है। इसके साथ ही दुसरा प्रश्न यह होता है कि अगर जैन दृष्टि सदा एकसी स्थितिशील रही और बौद्ध वेदान्त दृष्टि की तरह उसमें परिवर्तन या चिन्तन विकास नहीं हुआ तो इसका क्या कारण है।
__ भगवान महावीर का पूर्व समय जबसे थोड़ा बहुत भी जैन परम्परा का इतिहास पाया जाता है तबसे लेकर आज तक जैन दृष्टि का वास्तववादित्व स्वरूप बिलकुल अपरिवर्तिष्णु या ध्रुव ही रहा है। जैसा कि न्याय वैशेषिक, पूर्व मीमांसक, सांस्य-योग आदि दर्शनों का भी वास्तववादित्व अपरिवतिष्णु रहा है। बेशक न्याय वैशेषिक आदि उक्त दर्शनों की तरह जैन दर्शन के साहित्य में भी प्रमाग प्रमेय आदि सब पदार्थों की व्याख्याओं में, लक्षणप्रणयन में
और उनकी उपपत्ति में उत्तरोत्तर सूक्ष्म और सूक्ष्मतर विकास तथा स्पष्टता हुई हैं, यहां तक कि नव्यन्याय के परिष्कार का आश्रय लेकर भी यशोविजय जी जैसे जैन विद्वानों ने व्याख्या एवं लक्षणों का विश्लेषा किया है फिर भी इस सारे ऐतिहासिक समय में जैन दृष्टि के वास्तववादित्य स्वरूप में एक अंश भी फर्क नहीं पड़ा है जैसा कि बौद्ध और वेदान्त परंपरा में हम पाते हैं।
बौद्ध परंपरा शुरू में वास्तववादी ही रही । पर महायान की विज्ञानवादी और शुन्ययादी शाखा ने उसमें आमूल परिवर्तन कर डाला ! उसका वास्तववादित्व ऐकान्तिक अवास्तववादिख में बदल गया । यही है बौद्ध परंपरा का दृष्टि परिवर्तन । वेदान्त परम्परा में भी ऐसा ही हुआ। उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र में जो अवास्तववादित्व के अस्पष्ट बीज थे और जो वास्तवयादित्व के स्पष्ट सूचन घे उन सबका एक मात्र अवास्तववादित्व अर्थ में तात्पर्य बतलाकर शङ्कराचार्य ने वेदान्त में अवास्तववादित्व की स्पष्ट स्थापना की जिसके ऊपर आगे जाकर