Book Title: Prakrit Verses in Sanskrit Works on Poetics Part 01
Author(s): V M Kulkarni
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 664
________________ Additions 932-216 ससिमुहि मुहस्स लच्छी घणसालिणजणवण्णय मणुकरइ । तणुओअरि तणुआअइ हलिअसुओ कुणसु जं जुत्तं ॥ (शशिमुखी-मुखस्य लक्ष्मीः घनशालिधानावर्णमनुकरोति । तनुकोदरी तनुकायते हालिकसुत कुरु यद् युक्तम् ॥) 960.222 एंतो विवलाअंत..."ए विअलंत-केसहत्थाए । विहलंघल-चलणाए कहं पि सम्भाविओ दइओ॥ (आयन फ्लायमान"""या विगलत्केशहस्तया । विह्वल-चरणया कथमपि सद्भावितः (? संभावितः) दयितः ॥) 962.2 सज्झस-वस-वेविर-कोमलोरु-पडिसिद्ध-समुह-संचारा। केण वि दिण्णा ताव अपिएण परिरंभिआ रमणी॥ (साध्वस-वश-वेपमान-कोमलोरु-प्रतिषिद्ध-संमुख-संचारा । केनापि दत्ता तावत् च प्रियेण परिरम्भिता रमणी॥ 1014.231 तो णिअ-पेम्म-पडिपसाअ )? पडिपसाअं) दुम्मणिअमसहंति चलिआ जा। पइणो चलंत-णेउर-पलाव-आकड्ढिअं हिअअं॥ (तत: निजप्रेम-प्रतिप्रसादम् (?) दौर्मनस्यम् असहमाना चलिता यावत् । पत्युः चरण-नूपुर-प्रलाप-आकृष्टं हृदयम् ॥) . *35.347 सिसिर-पडिरोह-मुक्कं अवराहत्तं विअअ (?) चलिअक्कं । इह रइअ-रआवलिअं (?) वित्थरदि दिसाहि कड्ढिों व णहअलं ॥ . (शिशिर-प्रतिरोध-मुक्तम् अपराभिमुखं xxxचलितार्कम् । इह रचित-रज-आवलिकं विस्तरति दिशासु नभस्तलम् ॥) 39.348 कणइल्लि च्चिअ जाणइ कुंत-पलस्साइ (?) कोर-संलवई (?) । पूसअ-भासं मुंचसु ण हु रे हं धव्व (? धिट्ट) वाआडी ॥ (शुको एव जानाति शुक-प्रलपितानि (?) कोर-संलापिनी (?) । शुक-भाषां मुञ्च न खलु रे ऽहं धृष्टशुकी ॥) 81.356 हिअइ तिरच्छी पहि समुह पच्छा गहिअ-कडच्छि । पहिअ एक्कज्जि गोरडी णं चउहट्टह वच्चि ॥ (हृदये तिरश्चीना पथि संमुखा पश्चाद् गृहीत-कटाक्षा। पथिक एका एव गौरी ननु चतुर्हटस्य मध्ये ॥)

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