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॥ णमोत्थु वीदरागाणं॥
(णीदी-संगहो)
धम्म-णीदी
मंगलाचरण वीयराएण णिद्दिटुं, जिणधम्माण णिम्मलं । सव्वण्हूणं च सत्थाणं, तिजोएण णमामि हं ॥१॥
अन्वयार्थ- (वीयराएण णिद्दिष्ठं) वीतराग द्वारा निर्दिष्ट (णिम्मलं) निर्मल (जिणधम्माण) जिनधर्म (सव्वण्हूणं) सर्वज्ञों (च) और (सत्थाणं) शास्त्रों को (हं) मैं (तिजोएण) त्रियोगों से (णमामि) नमन करता हूँ ।
भावार्थ- जन्म-जरा-मृत्यु आदि सम्पूर्ण दोषों से रहित वीतराग जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित (प्रसारित) जिनधर्म को, सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त सर्वज्ञ परमात्माओं और उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने वाले साधुओं तथा उनकी वाणी के अनुसार रचे गये समस्त शास्त्रों को मैं मन-वचन-कायरूप तीनों योगों से नमस्कार करता
अहीएन जहा सत्थं, जाणंति अप्पणो णरा । तहा णीदी सुसत्थाणं, कज्जाकजं कहेज हं ||२|| ___ अन्वयार्थ- (जहा) जिस प्रकार (सत्थं) शास्त्र को (अहीएज्ज) पढ़कर (णरा) मनुष्य (अप्पणो) आत्मा को (जाणंति) जानते हैं (तहा) उसी प्रकार (णीदी सुसत्थाणं) नीति के सुशास्त्रों को [पढ़कर] (कज्जाकजं) कार्य-अकार्य को [जानते हैं, अत:] (हं) मैं [नीति-संग्रह को] (कहेज) कहूँगा ।
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