Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 50
________________ कोई भी कार्य असम्भव नहीं है । उच्च-पद, अकूत धन-सम्पत्ति और ख्याति-लाभ की इच्छा रखने वाले में ये गुण अवश्य होने चाहिए। उनोगं कलह कण्डु, जूयं मनं परत्थियं । आहारं मेहुणं णिई, सेयमाणं च वड्डदे ॥२८॥ अन्वयार्थ- (उज्जोगं कलह कण्डं जूयं मजं परत्थियं आहारं मेहुणं च णिबं) उद्योग, कलह, खुजली, जुआ, शराब-सेवन, परस्त्री सेवन, आहार, मैथुन और निद्रा (सेयमाणं) सेवन करते हुए (वड्डदे) बढ़ते हैं । भावार्थ- उद्योग-व्यापार, कलह-झगड़ा, खाज-खुजली, जुआ-लाटरी, अर्थात् कोई भी हार-जीत का खेल, शराब अथवा कोई भी नशीली वस्तु, पर-स्त्री का सम्बन्ध, भोजन, मैथुन और निद्रा इनका जितना सेवन करते जाओ, उतनी ही इनके सेवन की इच्छा बढ़ती जाती है, घटती नहीं है । देवणिंदी दलिदो हि, गुरु-णिंदी य पादगी । सामी-णिंदी हवे कुट्ठी, गोद-णिंदी कुलक्खयी ॥२९॥ अन्वयार्थ- (देवणिंदी) देव-निन्दक (दलिद्दो) दरिद्र (गुरुणिंदी) गुरु-निन्दक (पादगी) पातकी (सामी-णिंदी) स्वामीनिन्दक (कुट्ठी) कुष्ठी (य) और (गोद-णिंदी) गोत्र-निन्दक (कुलक्खयी) कुल-क्षयी (हि) निश्चित ही (हवे) होता है । भावार्थ-सचे देव की निन्दा अथवा साधारण देव की निन्दा करने वाला दरिद्री-निर्धन, सच्चे गुरु अथवा शिक्षा गुरु की निन्दा करने वाला पातकी-पापी, स्वामी अथवा अत्यन्त निकटवर्ती व्यक्ति की निन्दा करने वाला कुष्ठी-कोड़ी तथा अपनी जाति, धर्म या गोत्र की निन्दा करने वाला कुल का नाश करने वाला निश्चित ही होता है । ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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