Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 59
________________ उज्जोगसारिणी लच्छी, कित्ती चागाणुसारिणी । समाणुसारिणी विजा, बुद्धी कम्माणुसारिणी ॥४९॥ . अन्वयार्थ- (उज्जोगसारिणी लच्छी) लक्ष्मी उद्योगानुसारिणी (कित्ती चागाणुसारिणी) कीर्ति त्यागानुसारिणी (समाणुसारिणी विजा) विद्या श्रमानुसारिणी [तथा] (बुद्धी कम्माणुसारिणी) बुद्धि कर्मानुसारिणी [होती हैं । भावार्थ- जितना जैसा उद्योग किया जाएगा उतनी वैसी लक्ष्मी होगी क्योंकि लक्ष्मी उद्योग के अनुसार होता है । इसी तरह जितना दान किया जाएगा उतनी ख्याति होगी क्योंकि ख्याति (कीर्ति) त्याग के अनुसार होती है । विद्या श्रम अथवा अभ्यास के अनुसार घटती-बढ़ती है और बुद्धि पूर्वकृत् तथा सत्ता में स्थित कर्मों के अनुसार अच्छी-बुरी हो जाती है । इन्हें प्रयत्न पूर्वक उर्ध्वमुखी कर सकते हैं। भोयणं पुत्त संकिण्णं, मित्त-संकिण्णमासणं । अप्पाणो सत्थसंकिण्णं, बंधू-संकिण्ण-आलयं ॥५०॥ अन्वयार्थ- (भोयणं पुत्त संकिण्णं) भोजन पुत्रों से संकीर्ण (मित्त-संकिण्णमासणं) मित्रों से संकीर्ण आसन (अप्पाणो सत्थसंकिण्णं) शास्त्रों से संकीर्ण आत्मा [तथा] (बंधू-संकिण्ण-आलयं) बन्धुओं से संकीर्ण घर [होना वैभव की निशानी है] । भावार्थ- भोजन पुत्रों के साथ बैठकर करना चाहिए, अच्छे मित्र इतने होने चाहिए कि जिससे आसन कम पड़ जाएँ, शास्त्राभ्यास इतना होना चाहिए कि राग-द्वेष आदि विकारों के लिए आत्मा में जगह कम पड़ जाएँ और बन्धु अर्थात् कुटुम्बीजनों से घर भरा रहना चाहिए । यह वैभव-सम्पन्नता के चिह्न हैं । भोजगारं कई वेलं, सेवगं सत्थ-पाणिगं । सामीणं धणिणं मूढ़, णाण-जुत्तं ण कोवदे ॥५१॥ १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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