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जननी है । अत: लोभ, रस तथा राग-भाव छोड़कर निर्ममत्व होने की चेष्टा करनी चाहिए ।
दुराचारी-य-दुद्दिट्ठी-इत्थी-चोर-खलेण वा । जो मित्ती कुव्वदे सेहूं, सो वि सिग्धं विणस्सदि ॥६२॥
अन्वयार्थ- (जो) जो (दुराचारी-दुट्टिी-इत्थी-चोर-खलेण वा) दुराचारी, दुर्दृष्टि, स्त्री, चोर अथवा दुष्ट से (मित्ती कुव्वदे) मित्रता करता है (सो) वह (सेट्ठ वि) श्रेष्ठ होते हुए भी (सिग्धं विणस्सदि) शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
भावार्थ- कोई श्रेष्ठ आचरण वाला, ज्ञानवान्, धनवान् मनुष्य भी यदि दुराचारी-खोटे आचरण वाले व्यक्ति से, दुर्दृष्टि-दुर्जन से, स्त्रियों से और चोर-उच्चक्कों से मित्रता करता है, तो वह भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता हैं, बदनाम तथा निर्धन हो जाता है । अत: इनकी मित्रता से बचना चाहिए ।
विसा वि अमिदं गेज्झं, अमेज्झादो वि कंचणं । णीचा वि उत्तमा विजा, थी-रयणं वि णिद्धणा ॥६॥
अन्वयार्थ- (विसा वि अमिदं) विष से भी अमृत (अमेज्झादो विकंचणं) शौच से भी सोना (णीचा वि उत्तमा विजा) नीच मनुष्यों से भी उत्तम विद्या (थी-रयणं वि णिद्धणा) निर्धन कुल से भी स्त्री रत्न (गेझं) ग्रहण करना चाहिए ।
भावार्थ- बुद्धिमान् गृहस्थ वही है जो विष में से भी अमृत, शौच-विष्टा में से भी स्वर्ण, नीच मनुष्य से भी उत्तम विद्या तथा निर्धन कुलीन परिवार से भी उत्तम आचरण तथा गुणों से युक्त कन्या-रत्न ग्रहण कर लेता है । केवल सफेद चमड़ी और धन देखकर जाति-कुल का ध्यान रखे बिना जो विवाह सम्बन्ध करते हैं, वे मूर्ख हैं ।
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