Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 83
________________ परमेट्ठि-त्थुदि घादिचदुक्कं खविदूण कम्मं, अणंत-णाणादि चदुक्क-पत्तं । णिरवेक्ख-बंधुं तिल्लोयणाहं, अरहंतदेवं तं हं णमामि ||१|| ___अन्वयार्थ- [जो] (घादिचदुकं) घातियाचतुष्क, (कम्म) कर्मों को (खविदूण) नष्टकर (अणंत-णाणादि चदुक्क-पत्तं) अनंतज्ञानादि चतुष्टय को प्राप्त (णिरवेक्ख-बंधु)निरपेक्ष बंधु [और] (तिल्लोयणाह) तीन लोक के स्वामी हैं, (तं) उन (अरहंतदेवं) अरहंतदेव को (हं) मैं (णमामि) नमन करता हूँ। णहट्ट कम्मं विगदं-सरीरं, गुणट्ठपत्तं थिर-अप्पभावं । देहप्पमाणं सुविसुद्ध-सत्तं, णिच्चं णमामि तं सिद्धभयवं ॥२॥ __ अन्वयार्थ- [जो] (णट्टकम्म) आठ कर्मों से रहित (विगदंसरीरं) शरीर रहित (गुणट्ठपत्तं) अष्टगुणों को प्राप्त (थिर-अप्पभावं) आत्मस्वभाव में स्थिर (देहप्पमाणं) शरीर प्रमाण [शुद्ध आकार वाले] (सुविसु-सत्तं) अत्यन्त विशुद्ध आत्मावाले हैं (तं) उन (सिद्धभयवं) सिद्ध भगवान् को [मैं] (णिच्चं) नित्य (णमामि) नमस्कार करता हूँ | णाणादि-आयारे पंच-सुजुत्तं, सिक्खेदि सत्थं णियसिस्सवग्गं । दिक्खादि दायं कुसलं मुणिंदं, कप्पादि-णिटुं पणमामि सूरिं ॥३॥ अन्वयार्थ- [जो] (णाणादि-आयारे पंच-सुजुत्तं) ज्ञानादि पंचाचारों में अच्छी तरह से युक्त हैं (णियसिस्सवगं) निज शिष्य वर्ग को (सत्थं) शास्त्र (सिक्खेदि) सिखाते हैं (दिक्खादि दायं) दीक्षादि दान में (कुसलं मुणिंदं) कुशल मुनीन्द्र हैं (कप्पादि-णि8) स्थिति कल्पों में निष्ठ हैं [उन] (सूरिं) आचार्य को [मैं] (पणमामि) प्रणाम करता हूँ | ७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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