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करने पर (रोसंण करेदि) रोष नहीं करते हैं ऐसे] (संपुण्ण सीलाण गुणाण पत्तं) सम्पूर्ण शीलों और गुणों को प्राप्त (सिरि-कुंथुणाहं) श्री कुंथुनाथ को [मैं] (णिचं) नित्य (वंदामि) वन्दन करता हूँ | जो चक्कवट्टी जए सत्तमेसि, सप्पुण्ण-जुत्त मयरद्धजो यं । अट्ठारसं तित्थयरं सुदेवं, पदं ति पत्तं वंदामि अरहं ॥१८॥ - अन्वयार्थ- (जो) जो (जए) जगमें (सत्तमेसिं) सातवें (चक्कवट्टी). चक्रवर्ती हैं (सप्पुण्ण-जुत्त मयरद्धजो) सत्पुण्य युक्त मकरध्वज हैं (य) और (अट्ठारसं तित्थयरं) अठारहवें तीर्थंकर हैं [उन (पदं ति-पत्तं) तीन पदों को प्राप्त (सुदेवं) सचे देव (अरह) अरहनाथ जिनेन्द्र को [4] (वंदामि) वन्दन करता हूँ। खविऊण सल्लं मोहारि मल्लं, दहिऊण कम्मं संपत्त सम्म । चारित्त-दसण-तवं च णाणं, सिरिमलिणाहं वंदामि मलं ॥१९॥
अन्वयार्थ- (सल्लं) शल्य को [व] (मोहारिमल्लं) मोह रूपी मल्ल को (खविऊण) नष्टकर (कम्मं दहिऊण) कर्म को जलाकर (सम्मंचारित्त-दसण-तवं च णाणं) सम्यक् चारित्र-दर्शन-तप और ज्ञान को (संपत्त) संप्राप्त (सिरिमल्लिणाहं मल्लं) श्री मल्लिनाथ रूपी महामल्ल को [मैं] (वंदामि) वंदन करता हूँ । मुणि-सुव्वदं सुव्वदं णिहाणं, पंचमहव्वद सम्मत्त दाणं । देविंद विदेण वंदं मुणिंदं, देवाहिदेवं वंदामि सिरसा ॥२०॥ __अन्वयार्थ- (सुव्वदं णिहाणं) सुव्रतों के खजाने (पंचमहव्वद सम्मत्त दाणं) पंच महाव्रत [तथा] सम्यक्त्व देने वाले (देविंद विदेण वंदं मुणिंद) देवेन्द्रों के समूह से वंदनीयं मुनीन्द्र (देवाहिदेवं मुणि-सुव्वदं) देवाधिदेव मुनि-सुव्रत जिनेन्द्र को [मैं] (सिरसा) सिर झुकाकर (वंदामि) वंदन करता हूँ | जेणं णियं बोहमयेण लोगा, उवदेसिदा केई मोक्खमग्गे । सुगिहत्थमग्गे केइं पविट्ठा, णमि णमामि भावेहि सिरसा ॥२१॥
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