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ति-आयरिय-त्थुदि गणिंद आदिसायर-मुणिंद, सम्मत्त-चारित्त-सण्णाण-चंदं । तचोवदेसी य सत्तोववासी, मुणिकुंजरं तं सूरिं णमामि ||१|| ___अन्वयार्थ- [जो] (सम्मत्त-चारित्र-सण्णाणचंदं) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूपी चन्द्र हैं (तचोवदेसी) तत्त्वोपदेशी (य) और (सत्तोववासी) सप्तोपवासी हैं [थे] (तं) उन (मुणिकुंजरं) मुनिकुंजर (गणिंद) गणीन्द्र (सूरिं) आचार्य (आदिसायर-मुणिंदं) आदिसागर मुनीन्द्र को [मैं] (णमामि) नमस्कार करता हूँ। महावीरकित्तिं विसट्ट कित्तिं, धीरं गहीरं च सज्झाण-तित्तिं । भासा सु अट्ठारस धारगं च, उवसग्गजेदं सूरिं णमामि ॥२॥ ____ अन्वयार्थ- (विसट्टकित्ति) विस्तृत कीर्तिवाले (धीर) धीर (गहीरं) गम्भीर (सज्झाण तित्तिं) सच्चे ध्यान से तृप्त (अट्ठारस भासा-सु धारगं) अठारह श्रेष्ठ भाषाओं को धारण करने वाले (च)
और (उवसग्गजेदं) उपसर्ग विजयी (सूरिं) आचार्य (महावीरकित्तिं) महावीर कीर्ति को [मैं] (णमामि) नमस्कार करता हूँ । किसकाय किण्णु अप्पबलीयं, उववासी किण्णु अप्पवसीयं । पक्कट्ठवयणं णयणेसु तेयं, सूरिं तवस्सिं सम्मदिं णमामि ||३||
अन्वयार्थ- [जो] (किसकाय) कृषकाय (किण्णु) किन्तु (अप्पबलीयं) आत्मबली हैं (उववासी) उपवासी (किण्णु) किन्तु (अप्पवसीयं) आत्मवशी-आत्मवासी हैं [जिनके] (पक्कट्ठवयणं) प्रकष्ट वचन हैं [और] (णयणेसु) आँखों में (तेयं) तेज है [उन] (तवस्सि) तपस्वी (सूरिं) आचार्य (सम्मदि) सन्मतिसागरजी को [मैं] (णमामि) नमस्कार करता हूँ। टिप्पणी- गाथाओं के अन्वयार्थ में दो तरह के कोष्ठकों का प्रयोग किया गया हैं, ( ) यह कोष्ठक गाथा में से लिए गए शब्दों का तथा [ ] यह कोष्ठक ऊपर से जोड़े गए शब्दों का सूचक है ।
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