Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 88
________________ चउवीस-तित्थयर-त्थुदि जो विस्सकत्ता हर विस्सकम्मा,बंहा य विण्हू सिव-विस्सधम्मा। अणंत जीवाण सुमग्ग दाय, तं आदिणाहं पणमामि णिचं ॥१॥ __ अन्वयार्थ- (जो) जो (विस्सकत्ता) विश्वकर्ता (हर) हर (विस्सकम्मा) विश्वकर्मा (बंहा) ब्रह्मा (विण्हू) विष्णु (सिव) शिव (विस्सधम्मा) विश्वधर्म हैं (य) और (अणंत जीवाण) अनन्त जीवों को (सुमग्ग दायं) सुमार्ग देने वाले हैं (तं आदिणाह) उन आदिनाथ भगवान को [मैं] (णिचं) नित्य (पणमामि) प्रणाम करता जिय अट्ठकम्मं लीणं सुहावं, अणंत णाणादि सुपत्तभावं । दुक्खावहारी सिवसोक्खयारी, देविंद-वंदं अजिदं णमामि ।।२।। अन्वयार्थ- [जो] (अट्ठकम्म) अष्टकर्मों को (जिय) जीतकर (सुहावं लीणं) स्वभाव लीन हैं (अणंत णाणादि सुपत्त भावं) अनन्त ज्ञानादि भावों [गुणों को अच्छी तरह से प्राप्त (दुक्खावहारी) दु:खों को हरने वाले [तथा] (सिवसोक्खयारी) मोक्षसुख को करने वाले हैं, उन] (देविंद-वंदं अजिदं णमामि) देवेन्द्र-वंद्य अजितनाथ भगवान को मैं] नमन करता हूँ। झाणप्पबंधप्पहवेण जेण, हंतूण कम्मं पयडीओ पुण्णं । मुत्ती सरुवी पदवीए पत्तो, तं संभवं जिणदेवं णमामि ||३|| __ अन्वयार्थ- (जेण) जिन्होंने (झाणप्पबंधप्पहवेण) ध्यानप्रबन्ध के प्रभाव से (पुण्णं) सम्पूर्ण (कम्मं पयडीओ) कर्म प्रकृतियों को (हंतूण) नष्टकर (मुत्ती सरुवी पदवीए पत्तो) मुक्ति स्वरूपी पदवी को प्राप्त किया (तं संभवं जिणदेवं णमामि) उन संभवनाथ जिनदेव को [मैं नमन करता हूँ । ७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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