Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 81
________________ भावार्थ- जिस प्रकार हजारों गायों के बीच भी बछड़ा अपनी माँ को ढूढ़ लेता है, उसका अनुशरण करता है, उसी प्रकार जिसके द्वारा किया गया कर्म है वह उसी को शुभाशुभ फल देता है । किसी अन्य का कर्म किसी अन्य को तीन काल में भी फल नहीं दे सकता है । अपने दु:ख सुख के जिम्मेदार हम स्वयं हैं । धम्मट्ठाणे मसाणे य, रोगीसुं जा मदी हवे । सा वि णिचं हि चिट्टेज, को ण णस्सेदि बंधणं ॥९७|| अन्वयार्थ- (धम्मट्ठाणे) धर्मस्थान में, (मसाणे) श्मशान में (य) और, (रोगीसु) रोगियों में [उन्हें देखने पर] (जा मदी हवे) जो बुद्धि होती है (हि) वस्तुत: (सा) वह (णिचं) हमेशा (चिढेज) रहे [तो] (को) कौन (बंधणं ण णस्सेदि) कर्म बन्धन को नष्ट नहीं कर देता । भावार्थ- धर्मसभा, मंदिर आदि धर्मस्थान में, शव जलाने के स्थान श्मशान में जैसी बुद्धि होती है, यदि वैसी बुद्धि हमेशा बनी रहे तो फिर संसार में ऐसा कौन-सा मनुष्य है जो संयम धारण कर, तपस्या के द्वारा कर्म-बन्धनों को नष्ट न कर डालता । णिराउलेण धम्मेणं, साहिमाणेण जीविदं । अंते समाहि-मिचुं च, दाएन णाहिणंदणं ॥१००|| - अन्वयार्थ- (णिराउलेण) निराकुलतापूर्वक (धम्मेणं) धर्म युक्त (साहिमाणेण) स्वाभिमान् सहित (जीविदं) जीवन (च) और (अंते) अंत में (समाहि-मिच्छु) समाधिमरणं (णाहिणंदणं) नाभिनन्दन (दाएज) देवें । भावार्थ- निराकुलता पूर्वक, धर्म युक्त, स्वाभिमान सहित जीवन और जीवन के अंतिम क्षणों में श्री नाभिनन्दन ऋषभदेव भगवान् (मुझे) समाधिपूर्वक/समताभाव सहित मरण प्रदान करें। ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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