Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 72
________________ और दान इन तीन में सन्तोष कभी भी नहीं करना चाहिए । निरन्तर स्वाध्याय करने से ज्ञान, तप से संतोष तथा दान से धन बढ़ता है। तेलण्हाणे चिदा-धूमे, मेहुणे छोर-कम्मणे । ताव हवदि चंडालो, जाव पहाणं करेदि णो ७८॥ __ अन्वयार्थ- (तेलण्हाणे) तेल से स्नान करने पर (चिदा धूमे) शवदाह में जाने पर (मेहुणे) मैथुन करने पर (छोर-कम्मणे) बाल-कटाने पर [मनुष्य] (ताव) तब तक (चंडालो हवदि) चाण्डाल होता है (जाव) जब तक (ण्हाणं णो करेदि) स्नान नहीं करता है। भावार्थ- तैलादि प्रसाधनों से स्नान करने पर अथवा बहुत सजने-सँवरने पर, शव-दाह क्रिया में जाने पर, मैथुन से निवृत्त होने पर और बाल काटने अथवा कटवाने पर मनुष्य तब तक अस्पृश्य की श्रेणी में गिना जाता है, जब तक कि वह स्नान नहीं कर लेता है । इन कार्यों के बाद स्नान अवश्य करना चाहिए । दीवो भक्खदे अंधं, कज्जलं हि पसूयदे । जारिसं भक्खदे अण्णं, बुद्धी हवदि तारिसी ॥७९॥ अन्वयार्थ- (दीवो अंधं भक्खदे) दीपक अन्धकार खाता है (हि) इसलिए (कज्जलं पसूयदे) काजल उत्पन्न करता है [क्योंकि] (जारिसं भक्खदे अण्णं) जिस प्रकार का अन्न खाता है (बुद्धी हवदि तारिसी) बुद्धि उसी प्रकार की हो जाती है । भावार्थ- यहाँ दीपक का उदाहरण देते हुए समझाया गया है कि दीपक अन्धकार को खाता है इसलिए काजल (धुआँ) उगलता है । यही बात मानव जाति पर लागू होती है कि मानव जैसा भोजन करता है वैसी ही उसकी बुद्धि हो जाती है । एक लोकोक्ति भी हैं'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन; जैसा पीवे पानी, वैसी बोले बानी।' अत: आत्महितेच्छुओं को भोजन और पानी की शुद्धता का भी ध्यान रखना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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