Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 70
________________ चक्खुसमं तेयं) आँख के समान तेज नहीं है (णत्थि धण्णसमं पियं) धान्य के समान प्रिय वस्तु नहीं है। भावार्थ- संसार में बरषते हुए मेघों के जल के समान कोई जल नहीं है । अपने बाहुबल-स्वशक्ति के समान कोई दूसरा बल नहीं, क्योंकि समय आने पर अपनी शक्ति ही काम आती है, स्वस्थ आँखों के समान कोई भी प्रकाश नहीं है क्योंकि आँख के अभाव में सारे प्रकाश बेकार हैं । तथा धान्य-अनाज के समान प्रिय पदार्थ इस धरती पर और कोई नहीं है, क्योंकि अनाज से ही वस्तुत: प्राणियों का देह-पोषण होता है । णत्थि कामसमं बाही, णत्थि मोहसमं रिऊ । णत्थि कोवसमं अग्गी, णत्थि णाणसमं सुहं ॥७४|| अन्वयार्थ- (णत्थि कामसमं बाही) काम के समान व्याधि नहीं है (णत्थि मोहसमं रिऊ) मोह के समान शत्रु नहीं है (णत्थि कोवसमं अग्गी) क्रोध के समान अग्नि नहीं है [और] (णत्थिणाणसमं सुहं) ज्ञान के समान सुख नहीं है । . भावार्थ- संसार में कामोद्रेक के समान बीमारी नहीं है, क्योंकि कामी मनुष्य जघन्यतम पाप भी कर डालता है । मोह के समान शत्रु नहीं है, क्योंकि लौकिक शत्रु को शत्रुबुद्धि से दिखाने वाला यह मोह ही है । क्रोध के समान अग्नि नहीं है, क्योंकि लोक प्रसिद्ध अग्नि तो दिखते हुए पदार्थों को जलाती है, किन्तु यह क्रोधरूपी अग्नि बिना स्पष्ट दिखे जीव के गुणों को जला डालती है। तथा सच्चे ज्ञान के समान कोई सुख नहीं, क्योंकि ज्ञान बढ़ने से ही अनाकुलता बढ़ती है और अनाकुलता ही सच्चा सुख है । तिणं बंभविदं सग्गो, तिणं सूरस्स जीविदं । जिदक्खस्स तिणं णारी, णिप्फिहस्स तिणं जग ॥७५।। अन्वयार्थ- (तिणं बंभविदं सगं) आत्मज्ञानी को स्वर्ग तृण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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