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समान है (तिणं सूरस्स जीविदं) शूर के लिए जीवन तृण समान है (जिदक्खस्स तिणं णारी) इन्द्रियजयी के लिए स्त्री तृण समान है [तथा] (णिप्फिहस्स तिणं जग) निस्पृह मनुष्य के लिए सम्पूर्ण जगत् तृण समान है । . भावार्थ- आत्मज्ञान सम्पन्न साधक को स्वर्ग, शूरवीर योद्धा के लिए जीवन, इन्द्रिय-विजयी योगी के लिए सुन्दर स्त्री तथा वीतरागी निस्पृह साधक के लिए सम्पूर्ण संसार तृण के समान तुच्छ जान पड़ता है । धण-धण्णप्पयोगेसु, विज्ञा-संगहणेसु वा । आहारे ववहारम्हि, चत्त लज्जा सुही हवे ॥७६||
अन्वयार्थ- (धण-धण्णप्पयोगेसु) धन-धान्य के प्रयोग में (विजा-संगहणेसु) विद्या के संग्रह में (वा) अथवा (आहारे) आहार में (ववहारम्हि) व्यवहार में (चत्त लज्जा सुही हवे) लज्जा त्यागी ही सुखी होता है ।
भावार्थ- धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या के संग्रह करने में, आहार करने में तथा लोक-व्यवहार सम्बन्धी क्रियाओं में जो मनुष्य लज्जा छोड़कर प्रवृत्ति-क्रिया करता है वह ही सुखी होता है। संतोसं तिसु कादव्वं, सदारे भोयणे धणे । तिसु चेव ण कादव्वं, सज्झाए तवदाणसु ॥७७|| __ अन्वयार्थ- (सदारे भोयणे धणे) स्वदार, भोजन [तथा] धन (तिसु) [इन] तीन में (संतोसं कादव्यं) सन्तोष करना चाहिए (सज्झाए तवदाणसु) स्वाध्याय तप दान [इन] (तिसु) तीन में (ण कादव्वं) नहीं करना चाहिए ।
__भावार्थ- बुद्धिमान् गृहस्थ को अपनी स्त्री, भोजन तथा धन इन तीन में सन्तोष धारण करना चाहिए, किन्तु स्वाध्याय, तप
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