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वाली को बहिन के समान और छोटी को पुत्री के समान देखता (मानता) है, दूसरों के धन को पत्थर के समान मानता है अर्थात् उस पर अधिकार नहीं करता है, तथा अपनी आत्मा के समान ही सभी जीवों की आत्मा को मानता है, वह पण्डित है, ज्ञानी है ।
जलबिंदु - णिवादेण, कमसो पूरिदे घडो 1 तहेव सव्वविजाणं, धम्माणं च धणाण वा ॥८७॥
अन्वयार्थ- [जिस प्रकार ] (कमसो) क्रमश: ( जलबिंदुणिवादेण) जलबिन्दु गिरने से (पूरिदे घडो) घड़ा भर जाता है (तहेव) उसी प्रकार (सव्वविज्जाणं) सभी विद्याओं को (धम्माणं) धर्म को (च) और (धणाणं ) धन को [ जानो ] ।
भावार्थ - जिस प्रकार एक-एक बून्द पानी से घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार परिश्रम से अर्जित अक्षर-अक्षर ज्ञान से मनुष्य महा-विद्वान्, थोड़े-थोड़े धर्माचरण से धार्मिक तथा थोड़े-थोड़े धन के संचय से धनवान् बन जाता है ।
सहावेण हि तुस्संति देवा सप्पुरिसा पिदा । जादीओ अण्ण- पाणेहिं, वक्कदाणेण पंडिदा ॥८८॥
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अन्वयार्थ - ( देवा सुप्पुरिसा पिदा) देव सत्पुरुष पिता (सहावेण हि तुस्संति) स्वभाव से ही (जादीओ अण्ण - पाणेहिं ) जाति-बन्धु अन्न-पान से ( वक्कदाणेण पंडिदा) वाक्यदान से पंडितजन (तुस्संति) संतुष्ट होते हैं ।
भावार्थ- देव, सत्पुरुष और पिता तो अपने भक्त - प्रशंसकपुत्र पर स्वभाव से ही प्रसन्न रहते हैं, सजातीय भाई-बन्धु भोजनपानी के द्वारा तथा सुवचनों के प्रयोग पूर्वक चर्चा करने से पंडितजन प्रसन्न होते हैं ।
कम्माएदि फलं पुंसं, बुद्धी कम्माणुसारिणी । तहावि सुविचारेहिं, चरिया चरदे सुही ॥८९॥
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