Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ राजनेताओं अथवा अधिकारियों का, 'चकार' से दाँत वाले पशुओं का तथा शत्रु-पक्ष का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए। . जस्स पुत्तो वसीभूदो, णारी छंदाणुवट्टिणी । संतुट्ठो पत्त-विहवे, तस्स सग्गो इहेव हि ॥६०|| ... अन्वयार्थ- (जस्स) जिसका (पुत्तो वसीभूदो) पुत्र वशीभूत है (णारी छंदाणुवट्टिणी) स्त्री अनुशरण करने वाली है [और जो] (पत्त-विहवे) प्राप्त वैभव में (हि) अच्छी तरह (संतुट्ठो) सन्तुष्ट है (तस्स सग्गो इहेव) उसके लिए स्वर्ग यहीं है । .. . भावार्थ- जिसका पुत्र आज्ञाकारी है, समर्पित है, स्त्री इच्छानुसार प्रवृत्ति करने वाली है तथा जो प्राप्त हुई धन-सम्पत्ति में ही सन्तुष्ट है, ऐसे मनुष्य के लिए यहीं स्वर्ग है, क्योंकि उसके लिए बहुत सी अनुकूलता और अनाकुलता यहीं प्राप्त हो जाती है । वस्तुत: अनाकुलता ही सुख है । लोह-मूलाणि पावाणि, बाहीवो रसमूलगा । णेहमूलाणि दुक्खाणि, णिम्ममत्तं हि वा सुहं ॥६१॥ अन्वयार्थ- (हि) वस्तुत: (लोह-मूलाणि पावाणि) लोभ पापों का मूल है, (बाहीवो रस-मूलगा) बीमारियाँ रस-मूलक हैं, (णेहमूलाणि दुक्खाणि) स्नेह दु:ख का मूल है (वा) और (णिम्ममत्तं) निर्ममत्व (सुह) सुख का मूल है]| भावार्थ- लोभ सब पापों की जड़ है, यदि लोभ नष्ट हो जाए तो कोई भी पाप न हो । विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का निन्तर सेवन बीमारियों की जड़ है, यदि मनुष्य सादासीमित भोजन करे तो कभी बीमार पड़ने की नौबत ही नहीं आए । दुख का मूल कारण प्रेम है, यदि प्रेम न हो तो विकल्प भी न हों और जब विकल्प नहीं होंगे तो दुख कहाँ से होगा । इन सबसे विपरीत प्रत्येक पदार्थ के प्रति निर्ममता ही सच्चे सुख की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98