Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 66
________________ आयारो कुलजाणेदि, देसं जाणे दि भासणं । सब्भमो जाणदे णेहं, देहं जाणेदि भोयणं ॥६४॥ अन्वयार्थ- (आयारो कुलजाणेदि) आचार से कुल जाना जाता है (देसं जाणेदि भासणं) भाषा से देश जाना जाता है (सब्भमो जाणदे णेहं) हाव-भाव से स्नेह तथा (देहं जाणेदि भोयणं) भोजन से शरीर जाना जाता है । भावार्थ- मनुष्य के आचरण अर्थात् आचार-विचार से उसका कुल, भाषा से उसका देश, हाव-भाव रूप व्यवहार से उसका स्नेह और भोजन की मात्रा तथा शैली से उसकी शारीरिक क्षमता का ज्ञान हो जाता है। जुंजेह सुउले पुतिं, पुत्तं विज्जासु जुंजह । विसणे जुंजहे सत्तुं, मित्तं धम्मे य जुंजह ॥६५|| ___ अन्वयार्थ- (पुत्तिं सुउले जुंजेह) पुत्री को सुकुल में जोड़ो (पुत्तं विज्ञासु जुंजह) पुत्र को विद्या में जोड़ो (विसणे जुंजहे सत्तुं) शत्रु को व्यसनों में लगा दो (य) और (मित्तं धम्मे जुंजह) मित्र को धर्म में लगाओ । भावार्थ- समझदार गृहस्थों को अपनी पुत्री धार्मिक आचरण वाले सुकुल में देनी चाहिए, पुत्र को अच्छी विद्या के अध्ययन में लगाना चाहिए, शत्रु से लड़ने की बजाय उसे कोई खोटा व्यसन लगा देना चाहिए, जिससे वह खुद ही बर्बाद हो जाएगा, तथा मित्र को धर्मशास्त्र में लगाना चाहिए, जिससे उसका जीवन सुख-शान्ति मय हो जाएगा। किं हि भारो समत्थाणं, किं दूरं ववसायिणं । किं विदेसो य विज्ञाणं, को परो पियवादिणं ॥६६॥ अन्वयार्थ- (हि) वस्तुत: (समत्थाणं) समर्थ के लिए (किं भारो) भार क्या है (ववसायिणं) व्यवसायी के लिए (किं दूरं) दूर । ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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