Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 57
________________ धार्मिक, सुधी, शान्त, दान्त [तथा] अतंद्रालू (सिस्सो हि) शिष्य ही (सहलं) सफल (हवे) होता है । भावार्थ- गुरु की भक्ति करने वाला, संसार के दु:खों से भयभीत, विनयशील, धार्मिक, सुधी-विवेकी, शान्त-उपसमभाव युक्त अर्थात् मन्दकषायी, दान्त-इन्द्रियजयी और अतंद्रालूआलस्य से रहित शिक्षार्थी-शिष्य ही सफल होता है, अन्य नहीं । कामं कोहं तहा लोह, सादं सिंगार कोदुगं । अइणिद्दाइ-सेवा य, विजत्थी अट्ठ-वजदे ॥४५॥ अन्वयार्थ- (कामं कोहं तहा लोहं, सादं सिंगार-कोदुगं अइणिद्दा) काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, शृंगार, कौतुक, अतिनिद्रा (य) और (अइ-सेवा) अति सेवा [ये] (अट्ठ) आठ (विजत्थी) विद्यार्थी (वजदे) छोड़ दे । भावार्थ- काम, क्रोध, लोभ, स्वाद-लोलुपता, सजनेसँवरने की चेष्टा, टी. वी., सिनेमा आदि कौतुक, बहुत सोना और हमेशा दूसरों की सेवा करते रहना ये आठ दोष विद्यार्थी अवश्य ही छोड़ दे । यदि कोई इन दोषों में प्रवर्तता हुआ भी विद्याध्ययन करना चाहे तो उसका सफल होना संदेहास्पद ही रहेगा । पत्तत्थं भोयणं पाणं, दाणत्थं च धणजणं । धम्मत्थं जीविदं जेसिं, ते णरा सग्ग-गामिणो ॥४६|| अन्वयार्थ- (पत्तत्थं भोयणं पाणं) पात्र के लिए भोजन-पान (दाणत्थं धणजणं) दान के लिए धनार्जन (च) और (धम्मत्थं) धर्म के लिए (जेसिं) जिनका (जीविदं) जीवन है (ते णरा) वे मनुष्य (सग्ग-गामिणो) स्वर्गगामी हैं । भावार्थ- जो मनुष्य सु-पात्रों को भोजन-पान देने में सदैव तत्पर रहते हैं, दान करने के उद्देश्य से ही धन कमाते हैं और धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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