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कामी कोही तहा लोही, मञ्जपो विसणाउरो । एदे सम्म ण पस्संति, पञ्चक्खे वि दिवायरे ॥४२॥
अन्वयार्थ- (कामी कोही तहा लोही मज्जपो विसणाउरो) कामी, क्रोधी, लोभी, शराबी तथा व्यसनासक्त व्यक्ति (एदे) ये (पचक्खे वि दिवायरे) सूर्य के प्रत्यक्ष होने पर भी (सम्म) अच्छी तरह (ण पस्संति) नहीं देखते हैं ।
__ भावार्थ- कामी, क्रोधी, लोभी, शराबी और व्यसनासक्त अर्थात् खोटे आचरण में लगा हुआ मनुष्य ये सूर्य उदित रहते हुए भी अच्छी तरह नहीं देखते हैं, क्योंकि इनके भीतर विविध प्रकार की वासनाएँ भड़कती रहती हैं, अत: इनसे हमेशा बचना चाहिए। जत्थ विनागमो णत्थि, धणागमो य बंधुणो । सम्माणं तित्थ वित्तिं च, वासं कुलेह तत्थ णो ॥४३॥
अन्वयार्थ- (जत्थ) जहाँ (विज्जागमो धणागमो बंधूणो सम्माणं तित्थ च वित्तिं) विद्यागम, धनागम, बन्धुजन, सम्मान, तीर्थ और आजीविका (णत्थि) न हो (तत्थ) वहाँ (वास) निवास (णो) नहीं (कुज्जेह) करना चाहिए ।
भावार्थ- जहाँ पर ज्ञान की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, बन्धुजनों का संसर्ग, सम्मान, तीर्थ-यात्रा तथा आजीविका के साधन, इनमें से एक भी नहीं हो; वहाँ निवास कभी नहीं करना चाहिए । इनमें से एक-दो का भी यदि भली-भाँति योग हो जाए तो वहाँ निवास किया जा सकता है ।
गुरुभत्तो भवा-भीदो, विणीदो धम्मिगो सुही । संतो-दंतो अतंदालू, सिस्सो हि सहलं हवे ॥४४॥
अन्वयार्थ- (गुरुभत्तो) गुरु-भक्त (भवा-भीदो) संसार से भयभीत (विणीदो धम्मिगो सुही संतो-दंतो अतंदालू) विनीत,
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