Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 54
________________ विज्जा-अत्थ-मही-सामी, तवजुत्ते महा-जणे । मुक्खे सत्तु-गुरुम्मि य, दायव्वं णेव उत्तरं ॥३७॥ __ अन्वयार्थ- (विजा-अत्थ-मही-सामी) विद्या के स्वामी, धन के स्वामी, धरती के स्वामी (तवजुत्ते) तप में युक्त (महाजणे) महा समूह में (मुक्खे) मूर्ख में (सत्तु-गुरुम्मि य) शत्रु और गुरु में (उत्तरं णेव दायव्वं) उत्तर नहीं देना चाहिए । भावार्थ- विद्यावान्, धनवान्, धरती के स्वामी-राजा अथवा जमींदार, तपस्वी, महाजन अर्थात् मान्य व्यक्ति अथवा बहुत सारे लोग, मूर्ख, शत्रु और गुरु को उत्तर नहीं देना चाहिए । उत्तर नहीं देने से तात्पर्य है कि ऐसे वाद-विवाद से बचना चाहिए, जो उन्हें क्रोधित कर दे । इनके सामने प्राय: मौन ही रहना चाहिए । भोयणे वमणे ण्हाणे, मेहुणे मलमोयणे । सामायिगे जिणचाए, सुहीणं मोण-सत्तगं ॥३८॥ अन्वयार्थ- (भोयणे वमणे ण्हाणे मेहुणे मलमोयणे) भोजन, वमन, स्नान, मैथुन, मल-त्याग (सामायिगे जिणच्चाए) सामायिक [तथा] जिनार्चना में (सुहीणं) सुधीजनों का (मोण-सत्तगं) मौन सप्तक है । भावार्थ- भोजन करते समय, वमन (उल्टी, कै) होते समय, स्नान करते समय, मैथुनकाल में, मल-मूत्र का त्याग करते समय, सामायिक तथा जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते समय मौन रहना चाहिए । बुद्धिमानों ने यह मौन सप्तक कहा है । चंदो सुनो घणो रुक्खो, णदी घेणू य सजणो । एदे परुवगारस्स, वहृते पत्थणं विणा ॥३९॥ अन्वयार्थ- (चंदो सुजो घणो रुक्खो णदी धेणू य सज्जणो) चन्द्रमा, सूर्य, मेघ, वृक्ष, नदी, धेनु और सज्जन (एदे) ये (परुवगारस्स) परोपकार के लिए (पत्थणं विणा) प्रार्थना विना (वट्टते) प्रवृत्ति करते हैं। ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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