Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 52
________________ अन्वयार्थ- (पुत्त-दारा- गिहेहिं ) पुत्र - स्त्री - घर (च) और (धणादु ) धन से ( विजुत्तेहिं) वियुक्त होने पर (वा) अथवा (बहुलस्स दुहे जादे) बहुत दु:ख के उत्पन्न होने पर ( एगो) एक (धिदी ) धृति (सेयकरी) कल्याणकारी है । भावार्थ- पुत्र-पुत्रियाँ, स्त्री - सम्बन्धियों और धन से वियुक्त अर्थात् रहित हो जाने पर अथवा एक साथ भयंकर दुःख आ पड़ने पर एक धृति भावना अर्थात् धैर्य धारण करना ही कल्याणकारीसुखकारी है, अन्य कोई नहीं । परेण परिविक्खादो, णिग्गुणो वि गुणी हवे । सक्को वि लहुगं जादि, सयं स - गुण - भासहिं ॥३३॥ अन्वयार्थ- (परेण परिविक्खादो) दूसरों के द्वारा प्रशंसा किए जाने से (णिग्गुणो विगुणी हवे ) निर्गुणी भी गुणी हो जाता है [ तथा ] (सयं) स्वयं (स- गुणभासहिं) स्व-गुणों का कथन करने से (सक्को वि) इन्द्र भी ( लहुगं जादि) लघुता को प्राप्त हो जाता है । भावार्थ- दूसरे लोगों के द्वारा बार-बार प्रशंसा किए जाने से निर्गुण मनुष्य भी गुणवानों की श्रेणी में गिना जाने लगता है, किन्तु इसके विपरीत स्वयं अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से महागुण सम्पन्न इन्द्र भी लघुता को प्राप्त हो जाता है । अत: अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए । तेजो लज्जा मदी माणं, सच्चं णाणं च पोरिसं । खाई - पूया कुलं सीलं, पजहेंति धणक्खए ॥३४॥ - अन्वयार्थ - (तेजो लज्जा मदी माणं सच्चं गाणं पोरिसं खाईपूया कुलं च सीलं) तेज, लज्जा, मति, मान, सत्य, ज्ञान, पौरुष, ख्याति, पूजा, कुल और शील [ मनुष्य को ] ( धणक्खए) धनक्षय होने पर (पजहेंति ) छोड़ देते हैं । ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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