Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 49
________________ भावार्थ- जिस श्रेष्ठ पुण्यवान् मनुष्य में उद्यम - परिश्रम, साहस- निडरता, धैर्य- धीरता, बल-ताकत, बुद्धि - विवेकज्ञान और पराक्रम-कार्य के प्रति सन्नद्धता, ये छह गुण (विशेषताएँ) पाये जाते हैं, उसके साधारण मनुष्य तो ठीक देव भी किंकर-नौकर बन जाते हैं, सेवा और सहायता करने लग जाते हैं । उज्जमेण हि सिज्झंति कज्जाणि णो मणेण हि । उज्जमेण दु कीडा वि, भिदंते महदं दुमं ॥२६॥ अन्वयार्थ - (उज्जमेण हि कज्जाणि सिज्झति) कार्य उद्यम से ही सिद्ध होते हैं (णो मणेण हि ) न कि केवल मन से (उज्जमेण दु कीडा वि) उद्यम से कीड़े भी (महदं दुमं) बड़े - वृक्ष को ( भिंदते ) भेद डालते हैं । 1 भावार्थ- वस्तुत: सभी कार्य योग्य पुरुषार्थ से ही सिद्ध होते हैं, केवल मन में विचार करते रहने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है । निरन्तर उद्यम कर छोटे-छोटे कीड़े भी बड़े भारी वृक्ष को नष्ट कर डालते हैं । पुरुषार्थी व्यक्ति ही धन, सम्मान और ख्याति पाता है, किन्तु निरुद्योगी व्यक्ति केवल मृत्यु ही पाता है और कुछ नहीं । सरीर - णिरवेक्खस्स दक्खस्स ववसायिणो । पुण्णजुत्तस्स धीरस्स, णत्थि किंचि वि दुक्करं ||२७|| अन्वयार्थ - ( सरीर - णिरवेक्खस्स) शरीर से निरपेक्ष (दक्खस्स) दक्ष (ववसायिणो ) उद्योग - शील (पुण्णजुत्तस्स) पुण्ययुक्त [ और ] ( धीरस्स) धीर व्यक्ति के लिए (किंचि वि) कुछ भी ( दुक्करं ) दुष्कृत नहीं है । भावार्थ- जो शरीर से निरपेक्ष ( शरीर के नष्ट होने की भी चिन्ता नहीं करता), दक्ष अर्थात् अत्यन्त चतुर, निरन्तर उद्यमशील, पुण्य कर्म से युक्त तथा धैर्य गुण से युक्त हैं, उसके लिए - ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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