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अहीएजजहा सत्थं,जाणंति अप्पणोणरा ।
तहाणीदी सुसत्थाणं, कजाकजं कहेजहं ॥ जिन दर्शन की भावना में श्रद्धा, साधना, समभाव, वीतराग भाव, तत्त्वचिंतन आदि का समावेश होता है जो व्यक्ति प्रतिदिन अत्यन्त भक्तिभाव से जिनेन्द्र भगवान का दर्शन पूजन, स्तवन, अभिषेक एवं जप आदि करता है वह महावैभव के साथ स्वर्ग या मोक्ष को अवश्य प्राप्त होता है । जिन-वंदन, श्रद्धा अर्चना आदि से आयु विद्या,बल और यश बढ़ता है यथा
जिण-वंदण-सीलस्स, णिचं वुड्डोवसेविणो ।
चत्तारितस्स वढते, आऊ विजाबलं जसो ॥५॥ इसी तरह अन्य प्रस्तुतीकरण में भी विनय, वैराग्य भाव, संयम, श्रमणधर्म, इन्द्रियनिग्रह, मनोनिग्रह, क्षमा, कषाय-विजय, साधक-जीवन की भूमिका, राग-द्वेष विकार पर विजय आदिका भी विवेचन है। इसमें शिक्षा के सूत्र है, मनुष्य जन्म की सार्थकता है, विषय भोगों से विरक्ति भी है । इसमें लोक नीति संग्रह, नीति शतक के रूप में प्रस्तुत है । क्योंकि इसमें आत्मनिष्ठा का भी समावेश है। आत्मानुभूति परक वचन उल्लासमयी हैं, जो विशुद्ध आत्मचिंतन को भी प्रदान करने वाले हैं।
__ शतक काव्य की परम्परा में आचार्य समन्तभद्र का जिनस्तुति शतक, संस्कृत का प्रमुख शतक काव्य है । प्राकृत में मुक्तक काव्य के रूप में प्रसिद्ध वज्जालग्गं और गाथसत्तसई प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त अन्य भी कई नीति प्रधान रचनाएँ 'प्राकृत' के सामृध्य की गाथा गा रही हैं ।
त्रिभाषा कविमुनि श्री सुनीलसागरजी ने इक्कीसवीं शताब्दी में तपस्वीराज आचार्य श्री सन्मतिसागरजी के अनन्य आशीष से धर्म और दर्शन के क्षेत्र में कुछन कुछ कहने एवं लिखने का अनुपम प्रयास किया है । वे धर्म, दर्शन, विज्ञान, व्याकरण, इतिहास तथा साहित्य के उत्कृष्ट अध्येता,प्रखर-वक्ता, बहुभाशाविद् तथा साहित्य की प्रत्येक विधा में लेखन करने वाले युवामुनि हैं, उनके प्रस्तुत चिन्तन में व्रतों की श्रेष्ठता, उनका महाम्य एवं धार्मिकता के सच्चे स्वर हैं । वे धार्मिकता में 'धम्मिकत्ते य सद्दया' जैसे सूत्र को देकर दया को मनुष्ययोनि का सारभूत मानते हैं । वे यह भी कथन करते हैं कि लोक में किसी भी जीव के प्रति क्लेश का भाव भयंकर दु:ख का कारण होता है। वे अहिंसा को जहाँ जीवन का प्राण मानते हैं, वहीं सत्य को ‘सव्व सत्तोवयारी' भी मानते हैं । वे मनुष्यों को
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