Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 38
________________ लोग-णीदी सिद्धमट्ठ - गुणोवेदं णिव्वियारं णिरंजणं I तं सरिसं णियप्पाणं, जो जाणेदि स पंडिदो ||१|| 1 अन्वयार्थ - (अट्ठ-गुणोवेदं) आठ-गुणों को प्राप्त ( णिव्वियारं) निर्विकार (णिरंजणं) निरंजन (सिद्धं) सिद्ध हैं ( तं सरिसं ) उनके समान (णियप्पाणं) निज आत्मा को (जो ) जो मनुष्य (जाणेदि) जानता है (स) वह (पंडिदो) पंडित है । भावार्थ- आठ कर्मों के नाश से सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों को प्राप्त, निर्विकार अर्थात् पर द्रव्य जनित किसी भी विकृति से रहित, निरंजन अर्थात् ज्ञानावरणादि, राग-द्वेषादि कर्मरूप अंजन से रहित सिद्ध भगवान के समान जो अपनी आत्मा को जानता है, वेदन करता है, वह पंडित है । लिंगीणं च गुरुं इत्थिं, दुजणं णिवई तहा । मुक्खं बालं च सप्पं च, कोहएंति णो पंडिदा ॥२॥ अन्वयार्थ - (लिंगीणं) लिंगधारी (गुरुं) गुरु ( इत्थिं) स्त्री (दुजणं) दुर्जन ( णिवइं) राजा ( तहा) तथा राज- सेवक ( मुक्खं) मूर्ख (बालं) बालक (च) और (सप्पं) सर्प को (पंडिदा) बुद्धिमान लोग (णो कोहएंति) कुपित नहीं करते हैं । भावार्थ- समझदार लोग भेषधारी साधु, गुरु, स्त्री, दुर्जन, राजा, 'तहा' शब्द से तथा राज-सेवक, मूर्ख, बालक और सर्प को क्रोधित नहीं करते हैं, अर्थात् इनके सम्बन्ध में कोई भी ऐसी चेष्टा नहीं करते जिससे कि ये कुपित हो जायें, क्योंकि इनके रुष्ट हो २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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