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जामादा जढरं जाया, जादवेदा जलासओ । पूरिदा णेव पूरते, जकारा पंच दुब्भरा ॥१२॥ __ अन्वयार्थ- (जामादा जढरं जाया जादवेदा जलासओ) दामाद, जठर, पुत्री, अग्नि, जलाशय (पूरिदा णेव पूरते) भरने पर भी नहीं भरते [ये] (पंच जकारा दुब्भरा) पाँच जकार दुर्भर हैं ।
भावार्थ- दामाद-जमाई, जठर-पेट, जाया-पुत्री अथवा संतान, जातवेदस्-अग्नि अथवा तृष्णा और जलाशय-समुद्र अथवा तालाब ये पाँच ‘जकार' दुर्भर हैं । इन्हें कितना ही भरते जाओ पर ये कभी पूर्ण रूप से नहीं भरे जा सकते । 'ज' अक्षर से शुरू होने के कारण इन्हें 'पंच-जकार' कहा गया है ।
सचं सोजण्ण-संतोसं, समदा साहु-संगदी । सकारा पंच वट्टते, दुग्गदिं व एदि सो ॥१३||
अन्वयार्थ- (सचं सोजण्ण-संतोसं, समदा साहु-संगदी) सत्य, सौजन्य, सन्तोष, समता, साधु-संगति [जो इन] (पंच सकारा वट्टते) पाँच सकारो में वर्तता है (सो) वह (दुग्गदि) दुर्गति को (णेव एदि) प्राप्त नहीं करता है।
भावार्थ- सत्य-सत्यवादिता, सौजन्य-मिलनसारिता, संतोष-संतुष्टता और साधुजनों की संगति करना इन पाँच सकारों में जो प्रवृत्ति करता रहता है वह दुर्गति को नहीं पाता। 'स' अक्षर से प्रारम्भ होने के कारण ये 'पंच-सकार' कहलाते हैं । दाणं दया दमिक्खाणं, दंसणं देवपूयणं । दकारा जस्स विजंते, गच्छंते ते ण दुग्गदिं ॥१४॥
अन्वयार्थ- (दाणं दया दमिक्खाणं दंसणं देवपूयणं) दान, दया, इच्छाओं का दमन, दर्शन, देवपूजन (दकारा जस्स विजंते) [ये] दकार जिसके पास रहते हैं, (ते) वे (दुग्गदि) दुर्गति को (ण) नहीं (गच्छंते) जाते हैं ।
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