Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 41
________________ कृपण मानता हूँ [क्योंकि वह] (पर-भवे ण मुंचदि) पर-भव में नहीं छोड़ता है | भावार्थ- मैं अदाता-कंजूस मनुष्य को त्यागी मानता हूँ, क्योंकि जब वह मरता है तो सब कुछ यहीं का यहीं छोड़ जाता है तथा दाता अर्थात् निरन्तर दान दे-देकर अगले भव में महान्वैभव, धन-सम्पदा को प्राप्त करने वाले दाता को कंजूस मानता हूँ। कीडे हिं संचिदं धण्ण, मक्खीए संचिदं महू । किविणोवजिदा लच्छी, परेहिं हि विभुजदे ||८|| अन्वयार्थ- (कीडेहिं संचिदं धण्ण) कीड़ों के द्वारा संचित धान्य (मक्खीए संचिदं महू) मक्खियों द्वारा संचित मधु [और (किविणोवजिदा लच्छी) कृपण द्वारा उपार्जित लक्ष्मी (हि) निश्चय से (परेहिं) दूसरों के द्वारा ही (विभुजदे) भोगी जाती है । भावार्थ- कीड़े-मकोड़ों द्वारा अपने-अपने स्थान में एकत्रित किया हुआ गेहूँ-चावल आदि धान्य, मधु-मक्खियों द्वारा फूलों से लाकर अपने छत्ते में एकत्रित की गई मधू और कंजूस व्यक्ति द्वारा एकत्रित धन वास्तव में दूसरों के द्वारा ही उपयोग किया जाता है । ऐसे कुछ ही बुद्धिमान होते हैं जो अपने द्वारा कमाएँ हुए धन को दान में लगाकर अपना यह भव और पर-भव सुधार लेते हैं । दाएन वयणं सुत्ता, देहट्टा पंच-देवदा । णस्सेंति तं खणे कित्ती, धिदी सिरी हिरी य धी ॥९॥ ___ अन्वयार्थ- (दाएज) दीजिए [यह] (वयणं सुत्ता) वचन सुनकर (कित्ती, धिदी सिरी हिरी य धी) कीर्ति, धृति, लक्ष्मी, लज्जा और बुद्धि [ये (देहट्ठा पंच-देवदा) देहस्थित पाँच देवता (तं खणे) उसी क्षण (णस्सेंति) नष्ट हो जाते हैं । भावार्थ- किसी से कोई वस्तु माँगते समय जब 'दीजिएदो' यह वचन कहा जाता है तब शरीर में आत्मा के आश्रय से रहने ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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