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दूरत्थो वि ण दूरत्थो, जो जस्स हियए द्विदो । हिदयादो य णिक्कंतो, समीवत्थो वि दूरगो ॥१९॥
अन्वयार्थ - (जो जस्स हियए द्विदो ) जो जिसके हृदय में स्थित है वह (दूरत्थो वि) दूर होता हुआ भी (ण दूरत्थो) दूर स्थित नहीं है (य) और (हिदयादी) हृदय से ( णिक्कंतो) निकला हुआ (समीवत्थो वि दूरगो) पास रहता हुआ भी दूर है ।
भावार्थ- जो व्यक्ति, वस्तु, भगवान् या अन्य कोई पदार्थ जिसके हृदय में बसा हुआ है, वह कितना ही दूर क्यों न हो पर वस्तुत: दूर नहीं है, क्योंकि उसमें मन लगा हुआ है; इसके विपरीत जो व्यक्ति, वस्तु या अन्य पदार्थ हृदय में नहीं है अथवा किसी कारणवश हृदय से निकल गया है, वह पास होता हुआ भी दूर है क्योंकि उसके प्रति कोई लगाव नहीं है ।
जदि इच्छेसि संबंधो, णिम्मलो वागवादो णो । संबंधो धण - धण्णस्स, परोक्खे दार दंसणं ॥२०॥
अन्वयार्थ - (जदि) यदि ( णिम्मलो ) निर्मल (संबंधो) सम्बन्ध ( इच्छेसि) चाहते हो [ तो ] (वाग - वादं) वचन - विवाद (धण - धण्णस्स संबंधो) धन-धान्य का सम्बन्ध [ तथा ] (परोक्खे दार दंसणं) स्त्री का परोक्ष में दर्शन (णो) नहीं करो ।
भावार्थ- किसी भी व्यक्ति से आप यदि अच्छे सम्बन्ध बनाना चाहते हैं तो इन तीन बातों का अवश्य ध्यान रखो - १. उससे किसी भी विषय पर वाद-विवाद मत करो २. धनरुपया - सम्पत्ति, धान्य अनाज आदि का लेन-देन मत रखो और ३. उसकी स्त्री को खोटी नजर से मत देखो तथा एकान्त में बात मत करो ।
णोपायो विज्जदे कोई, णो भूदो णो भविस्सदे । जेण कालो णिवज्ज, जीवाणं हंतमाण जो ॥२१॥
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