Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 36
________________ सयमेवप्पजायते, विणा जदेण देहिणो । अणादि-दिढ-सक्कारा, दुज्झाणं भव-कारणं ॥५७।। अन्वयार्थ- (देहिणो) शरीरधारियों को (विणा जदेण) बिना प्रयत्न के (अणादि दिढ सक्कारा) अनादिकालीन दृढ़ संस्कारों के बल से (भव-कारणं) संसार के कारणभूत (दुज्झाणं) दुर्ध्यान (सयमेवप्पजायते) स्वयं ही उत्पन्न हो जाते हैं । भावार्थ- संसारी जीवों को अनादिकालीन दृढ़ कुसंस्कारों के प्रभाव से बिना किसी प्रयत्न के संसार सागर में भटकाने वाले आर्त-रौद्र ध्यान रूप दुर्ध्यान-खोटे ध्यान स्वयं ही उत्पन्न होते रहते हैं । जब तक इन खोटे ध्यानों की परम्परा चलती रहेगी तब तक जीव अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता । अविक्खित्तं जदा झादा, स-तचाहिमुहं हवे । झाणीणं झाण-णिव्विग्धं, अप्पसिद्धीए वुच्चदे ॥५८॥ अन्वयार्थ- (जदा) जब (झादा) ध्याता (अविक्खित्तं) अविक्षिप्त होकर (स-तचाहिमुह) स्वतत्त्वाभिमुख (हवे) होता है [तब] (झाणीणं) ध्यानी का (णिव्विग्धं) निर्विघ्न (झाण) ध्यान (अप्पसिद्धीए) आत्मसिद्धि के लिए (वुच्चदे) कहा गया है । भावार्थ- जब ध्याता-ध्यान करने वाला मन-वचनकाय से अविक्षिप्त अर्थात् अचंचल होकर निज आत्म-तत्त्व के अभिमुख होता है, तब उस ध्यानी का वह निर्विघ्न अर्थात् निश्चल धर्म-शुक्ल ध्यान आत्मसिद्धि अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति कराने वाला कहा गया है। दाणं जे ण पयच्छंति, णिग्गंथेसु य गच्छए । जाल व्व हि गिहं तेसिं, संसार णिमज्जदे ॥५९॥ अन्वयार्थ- (णिग्गंथेसु) निर्ग्रन्थों में (य) और (गच्छए) गच्छ में (जे) जो (दाणं) दान (ण-पयच्छंति) नहीं देते हैं (हि) १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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