Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 34
________________ निष्फल, बेकार हो जाता है अर्थात् उससे कुछ भी कार्य सिद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार चारित्र-रहित व्यक्ति का बहुत-सा ज्ञान और तप का फल निष्फल होता है अथवा चारित्रहीन व्यक्ति का ज्ञान और ज्ञानहीन व्यक्ति के तप का फल निष्फल रहता है । दुब्बभग्गो हवे णिचं, धण-धण्णादि-वन्नियं । भीय-मुत्ती दुही लोए, वदहीणो य माणुसा ॥५३|| अन्वयार्थ- (वदहीणो) व्रतहीन (माणुसा) मनुष्य (णिचं) हमेशा (दुब्बभग्गो) दुर्भाग्यवान् (धण-धण्णादि-वज्जियं) धन-धान्य आदि संपदा से रहित (भीय-मुत्ती) भय मूर्ति, (य) और (लोए दुही) लोक में दु:खी (हवे) होता है । . भावार्थ-व्रत-चारित्र से रहित मनुष्य ही वस्तुत: दुर्भाग्यवान् हमेशा धन-रुपया पैसा आदि, धान्य-गेहूँ चना चाँवल आदि सम्पदा से रहित, हमेशा डरते रहने वाला - डरपोक, संसार में निरन्तर दु:खी और कष्टों को भोगने वाला होता है। यदि इस प्रकार के दु:खों से बचना है तो व्रत नियम संयम का विवेक एवं पुरुषार्थ पूर्वक पालन करो । अग्गीए विहिणा तप्पं, जहा सिज्झदि कंचणं । तहा कम्मकलंकप्पा, सिग्धं तवेण सिज्झदे ॥५४॥ ___अन्वयार्थ- (जहा) जैसे (अग्गीए विहिणा तप्पं) अग्नि में विधिपूर्वक तपाया हुआ (कंचणं) सोना (सिज्झदि) सिद्ध हो जाता है (तहा) वैसे ही (कम्मकलंकप्पा) कर्मों से कलंकित आत्मा (तवेण) तप के द्वारा (सिग्घं) शीघ्र (सिज्झदे) सिद्ध हो जाता है। - भावार्थ- जैसे अग्नि में विधिपूर्वक तपाये जाने पर स्वर्णपाषाण में से सोना एकदम पृथक होकर चमचमाता हुआ प्राप्त हो जाता है, वैसे ही कर्मों से कलंकित यह संसारी आत्मा विधिपूर्वक २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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