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सम्यक् तप से अपने को तपाकर शीघ्र ही निज शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेता है।
तवं करेदि जो णाणी, मुत्तीए रंजिदासयो । सग्गो गिहंगणो तस्स, रज्ज-सोक्खस्स का कहा ॥५५||
अन्वयार्थ- (जो णाणी) जो ज्ञानी (मुत्तीए) मुक्ति में (रंजिदासयो) रंजित आशय वाला होकर (तवं करेदि) तप करता है (तस्स) उसके लिए (सग्गो गिहंगणो) स्वर्ग घर का आँगन ही है [तो फिर] (रज्ज-सोक्खस्स) राज्य सुख की (का कहा) क्या बात करना ।
भावार्थ- जो विवेकी सम्यग्दृष्टि जीव मुक्ति में अनुरंजित आशयवाला होता हुआ तप करता है, उसके लिए तो उत्तम स्वर्ग भी घर के आँगन के समान सहज प्राप्त होता है, फिर राज्य-सुख, ख्याति-लाभ-पूजा की क्या बात करना अर्थात् वह तो उसे अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं । माणुस्सं दुल्लहं लोए, पंडित्तं अइदुलहं । जिणसासण-मच्चंतं, तवो तिल्लोए दुल्लहं ॥५६॥ __अन्वयार्थ- (लोए) लोक में (माणुस्सं) मानुषत्व (दुल्लहं) दुर्लभ है (पंडित्तं) पाण्डित्य (अइदुलहं) अति दुर्लभ है (जिणसासण-मच्चंत) जिनशासन अत्यन्त दुर्लभ है [तथा] (तवो) तप (तिल्लोए) तीन लोक में (दुल्लहं) दुर्लभ है ।
भावार्थ- इस लोक में चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीव को मानुषत्व अर्थात् मनुष्य पर्याय प्राप्त होना दुर्लभ है, कदाचित् मनुष्य पर्याय प्राप्त भी हो जाये तो शास्त्रों में पारंगतता रूप पाण्डित्य प्राप्त होना अति दुर्लभ है, उससे भी अत्यन्त दुर्लभ है जिनेन्द्र भगवान् का शासन अर्थात् जैनधर्म का प्राप्त होना और तीनों लोकों में सबसे दुर्लभ है सम्यक् तप का प्राप्त होना ।
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