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णाणेण णिम्मला कित्ती, णाणेण सग्ग-इड्डिणो । णाणेण केवलं जाणं, मोक्ख-सुहं च पावदे ॥४८॥ __ अन्वयार्थ- [जीव] (णाणेण णिम्मला कित्ती) ज्ञान से निर्मल कीर्ति (णाणेण सग्ग-इड्डिणो) ज्ञान से स्वर्ग ऋद्धियाँ (णाणेण केवलं णाणं) ज्ञान से केवलज्ञान (च) और (मोक्ख-सुह) मोक्ष-सुख (पावदे) पाता है ।
भावार्थ- संसारी भव्य जीवात्मा सम्यग्ज्ञान से विस्तृत निर्मल ख्याति को, स्वर्ग को, धन-संपत्ति, विद्या आदि ऋद्धियों को, केवलज्ञान को, और अधिक क्या कहें, विनय और विवेकपूर्वक सम्यग्ज्ञान की आराधना करने से मोक्ष सुख को भी प्राप्त कर लेता है ।
णाणेण णायदे विस्सं, सव्वं तचं हिदाहिदं । सेयासेयं च बंध वा, मोक्खं धम्मं किदाकिदं ॥४९॥
अन्वयार्थ- [ज्ञानी] (णाणेण) ज्ञान से (विस्स) विश्व को (सव्वं-तचं) सभी तत्त्वों को (हिदाहिदं) हित-अहित को, (सेयासेयं) श्रेय-अश्रेय को (बंध-मोक्खं) बंध मोक्ष को (धम्म वा) धर्म-अधर्म को, (च) और (किदाकिदं) कृत-अकृत को (णायदे) जानता है ।
भावार्थ- ज्ञानीजीव ज्ञान के माध्यम से संसार के सभी तत्त्वों को अपने हित-अहित को कल्याणकारी-अकल्याणकारी मार्ग को, बन्धन-मुक्ति को, धर्म-अधर्म को और करने तथा न करने योग्य कार्यों को अच्छी तरह जानता है और तदनुसार आचरण भी करता है। बहुलो किं अधीएण, णडस्सेव दुरप्पणा । तेणाधीदं सुदं सेटुं, जो किरिया वि कुव्वदि ॥५०||
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