Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 31
________________ भावार्थ- लोक में सम्यग्दर्शन का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है, जबकि यह सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का साधन है; सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र का बीज है और धर्मरूपी वृक्ष की जड़ भी यह ही है, अत: सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहिए । णिगोदं णिरए थीए, तिरिए वाण - विंतरे । चिट्ठाणे भमेदि णो, जीवो सम्मत्त जोगदो ॥४६॥ अन्वयार्थ - (सम्मत्त जोगदो) सम्यक्त्व के योग से (जीवो) जीव (णिगोदे णिरए थीए तिरिए वाण - विंतरे) निगोद, नरक, स्त्री, तिर्यंच, भवनत्रिक [तथा] ( णिच्चट्ठाणे) नीचपर्यायो में (णो) नहीं (भमेदि) भटकता । भावार्थ- सम्यग्दर्शन से संयुक्त जीव निगोद, नरक (प्रथम नरक बिना), स्त्री - पर्याय तिर्यंच, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों तथा अन्य और भी नीच पर्यायों - निंद्यस्थानों में उत्पन्न नहीं होता है । वह हमेशा उत्तमोत्तम पर्यायों को प्राप्त करता हुआ मोक्ष को पाता है । इसके विपरीत मिथ्यात्व से जीव संसार के अनंत दु:ख पाता है । तच्चबोहो मणोरोहो, सेयो रायप्प - सुद्धिणो । विरदी विसयादो हि तं णाणं जिणसासणे ॥४७॥ अन्वयार्थ - (हि) वस्तुत: ( जिससे ) ( तच्चबोहो मणोरोहो ) तत्त्वबोध, मनोरोध (सेयो - राय) श्रेय में राग (अप्प - सुद्धिणो) आत्म शुद्धि (विसयादो विरदी) विषयों से विरक्ति होती है (तं) वह (जिणसासणे) जिनशासन में (णाणं) ज्ञान [ कहा गया है ] । भावार्थ- वस्तुत: जिस ज्ञान से तत्त्वों का सम्यक् बोध हो, मन का निरोध हो, कल्याण मार्ग में राग हो, कषायों की उपशांतता से आत्मा में निर्मलता प्रकट हो और विषय भोगों से विरक्ति हो उसे ही जिनेन्द्र भगवान् के शासन में ज्ञान कहा गया है । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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