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सुहं देवणिगाएसु माणुसेसु च जं सुहं । कम्मक्खए समुव्वण्णे, तं सव्वं धम्म-संभवं ॥४१॥ . __ अन्वयार्थ- (जं) जो (देवणिगाएसु) देवसमूह में (सुह) सुख है (माणुसेसु) मनुष्य पर्याय में (सुह) सुख है (च) और (कम्मक्खए समुव्वणे) कर्मक्षय से उत्पन्न (सुख है) (तं सव्वं) वह सब (धम्म-संभव) धर्म से उत्पन्न है । __भावार्थ- देवताओं में जो विविध प्रकार का उत्तमोत्तम सुख है, मनुष्य पर्याय में धनपतित्व, चक्रवर्तित्व आदि का महान् सुख है तथा तपस्याकर कर्मनाश से उत्पन्न जो अनंत सुख है, वह सभी सचे धर्म से उत्पन्न हुआ है, ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि बिना धर्म के सहज प्राप्त वस्तु भी नहीं प्राप्त होती है और धर्म के प्रभाव से दुर्लभ वस्तु भी प्राप्त हो जाती है।
रावणो खयराहीसो, रामो य भूमिगोयरो । विजिदो सो वि रामेण, जदो धम्मो तदो जओ ॥४२॥
अन्वयार्थ- (रावणो) रावण (खयराहीसो) विद्याधरों का स्वामी था (य) और (रामो) राम (भूमिगोयरो) भूमिगोचरी थे (सो वि) वह भी (रामेण) राम के द्वारा (विजिदो) जीता गया (क्योंकि) (जदो धम्मो तदो जओ) जहाँ धर्म होता है, वहीं जय होती है ।
___ भावार्थ- त्रिखंडाधिपति रावण बड़े-बड़े विद्याधर राजाओं का स्वामी था, स्वयं भी महान राजनीतिज्ञ और विद्याओं से सम्पन्न था, इसके विपरीत राम वनवासी और साधारणजनों से सेवित थे, फिर भी उन्होंने रावण को पराजित कर दिया । सच ही है कि जहाँ धर्म होता है, वहीं विजय होती है । इस सूक्ति के सिद्ध होने में देर हो सकती है, पर अंधेरे नहीं ।
सद्दिट्ठीणाण-चारित्तं, धम्मं जो से वदे सुही । रसायणव्व सिग्धं सो, सग्गं-मोक्खं च पावदे ॥४३॥
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