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(मोत्तूण) छोड़कर (णाणादुहादु उद्धत्तुं) विविध दु:खों से उद्धार करने के लिए (हि) वस्तुत: (को) कौन (समत्थो) समर्थ हैं ।
भावार्थ- इस संसार में वीतरागी जिनेन्द्र भगवान्, वीतरागी गुरू और जैनधर्म को छोड़कर विविधदु:खों से दु:खी होते हुए जीवों का उद्धार करने में वस्तुत: कौन समर्थ है, अर्थात् कोई नहीं । विगदो णंतसो काले, जीवेण भमिदो भवे । काणि दुक्खाणिणो पत्ता, विणा जिणिंद-सासणं॥३२||
अन्वयार्थ- (विगदो पंतसो काले) बीते हुए अनंतकाल में (भवे) संसार में (भमिदो) घूमते हुए (जीवेण) जीवने (जिणिंदसासणं विणा) जिनेन्द्रशासन के बिना (काणि दुक्खाणि) किन दु:खों को (णो) नहीं (पत्ता) प्राप्त किया ।
भावार्थ- अनादि काल से इस संसार में भटकते हुए इस जीवने जिनेन्द्र भगवान के शासन को, जैनधर्म को नहीं पाकर संसार के कौन से भयंकर दु:ख नहीं भोगे, अर्थात् जिनेन्द्रशासन को प्राप्त किये बिना इस जीवने सभी प्रकार के सभी दु:ख भोगे हैं। जिणिंदस्स मदं पत्ता, णिचं जो तम्हि चेट्टदे । संपुण्णं किब्भिसं णट्ठा, सुट्ठाणं सो हि गच्छदे ॥३२॥
अन्वयार्थ- (जिणिंदस्स मदं पत्ता) जिनेन्द्र के मत को पाकर (जो) जो (तम्हि) उसमें ही (चेट्ठदे) चेष्टा करता है (सो) वह (संपुण्णं) सम्पूर्ण (किब्भिसं) पाप को (णट्ठा) नाशकर (सुट्ठाणं) सुस्थान को (हि) निश्चित ही (गच्छदे) जाता है ।
भावार्थ- जिनेन्द्र देव द्वारा कथित धर्म को प्राप्त करके जो मनुष्य उसमें कहे गए व्रत-नियमों का पालन करता है, सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की प्राप्ति हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करता है, सच्चे देवशास्त्र-गुरु की भक्ति करता है, वह निश्चित ही सम्पूर्ण पापों-कर्मों को नष्ट कर सर्वोत्तम स्थान मोक्ष को पाता है ।।
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