Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ जोव्वणं जीविदं सोक्खं, चित्तं लच्छी य चंचलं । णचा धम्मे रदो होन्ज, णिचलं सोक्ख-कारणं ॥३४॥ अन्वयार्थ- (जोव्वणं-जीविदं-सोक्खं चित्तं य लच्छी) यौवन, जीवन, सुख, मन और लक्ष्मी (ये) (चंचल) चंचल है, (णचा) ऐसा जानकर, (णिच्चल) निश्चल (सोक्खकारणं), सुख के कारणभूत (धम्मे) धर्म में (रदो) रत, (होज) होओ । ____ भावार्थ- यौवन (जवानी), लौकिक इन्द्रियजन्य सुख, मन और लक्ष्मी अर्थात् धन-संपत्ति ये सभी चंचल अर्थात् नाशवान् हैं, किन्तु एक स्वभावभूत धर्म ही निश्चल और शाश्वत् है, ऐसा जानकर ज्ञानियों को चाहिए कि वे धर्म मार्ग में ही प्रवृत्ति करें । क्योंकि यह धर्म ही सच्चे सुख का कारण है। धर्म के बिना तीन काल में भी सुखशांति नहीं मिल सकती, अत: धर्म मार्ग में सतत् पुरुषार्थ करो । मत्तप्पमत्त-उम्मग्गी, लोही कोही य कामुगो । दुहिदो छुहिदो मूढो, भीदो धम्म ण जाणदे ॥३५॥ अन्वयार्थ- (मत्तप्पमत्त-उम्मग्गी) मत्त-प्रमत्त, उन्मार्गी (लोही) लोभी (कोही) क्रोधी (कामुगो) कामी, (दुहिदो) दु:खी (छुहिदो) क्षुधातुर, (मूढो) मूढ, (य) और (भीदो) भयभीत (मनुष्य) (धम्म) धर्म को (ण) नहीं (जाणदे) जानता है । भावार्थ- मत्त अर्थात् पागल या मतवाला, प्रमत्त अर्थात् शराक आदि के नशे से उन्मत्त, उन्मार्गी अर्थात् खोटे कार्यों में प्रवृत्ति करने वाला, अति लोभी, अति क्रोधी, कामी-विषयवासना में पड़ा हुआ, दु:खों से युक्त, मूढ अर्थात् अज्ञानी अथवा नास्तिक तथा किसी भय से अति भयभीत व्यक्ति धर्म को नहीं जानते हैं । 'दुहीए दुहणासस्स, मोक्खस्स भवभीरूणो । पावीए पाव-णाणस्स, जाणेज धम्म-उत्तमो । ॥३६|| - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98