Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 19
________________ धण-धण्णं सुइत्थिं च, गेह-वत्थादि वेहवं । तेसिं हवंति बाहुल्लं, अत्थेयं जेसु णिम्मलं ॥१७॥ __ अन्वयार्थ- (धण-धण्णं) धन-धान्य (सुइत्थिं) सुन्दर, सुशील स्त्री (गेह-वत्थादि वेहवं) मकान, वस्त्रादि वैभव (तेसिं) उनके (बाहुल्लं) बहुलता से (हवंति) होते हैं, (जेसु) जिनमें (णिम्मलं) निर्मल (अत्थेयं) अस्तेय होता है ।] भावार्थ- धन, धान्य, सुन्दर सुशील स्त्री, आलीशानबंगला, घर-मकान, खेत-खलिहान, सोना-चाँदी तथा वस्त्रादि वैभव उनके यहाँ बहुलता से होते हैं, जो निर्मल अस्तेय-अचौर्यव्रत का पालन करते हैं । सीलं हि सु-सहावं च, सीलं च वद-रक्खणं । बंभचेर-मयं सीलं, सीलं सग्गुण-पालणं ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ- (हि) वस्तुत: (सु-सहावं) सुस्वभाव (सील) शील है (वद-रक्खणं) व्रत-रक्षण (सीलं) शील है (बंभचेर-मयं) ब्रह्मचर्य-मय (सीलं) शील है (च) और (सग्गुण-पालणं) सद्गुणों का पालन (सीलं) शील है । भावार्थ- निश्चयदृष्टि से स्वात्मलीनता-स्वभाव परिणति को ही शील कहा है, यह शील स्वभाव सिद्ध भगवंतों को प्राप्त है । व्रतों की रक्षा में हमेशा तत्पर रहना शील (मर्यादा) है, यह सविकल्प साधकों में मुख्यत: पाया जाता है । ब्रह्मचर्य अर्थात् आत्मचारित्रमय होकर रहना शील है, यह मुख्यत: निर्विकल्प साधकों में होता है और सद्गुणों की रक्षा करना, पालन करना भी शीलव्रत कहलाता है, यह सभी विवेकी गृहस्थों में, साधकों में होता है/होना चाहिए । देवा समीवमाएंति, पूजयंति य भूभुजो । । परभवे सु गदी होदि, सीलेण णिम्मलं जसो ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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