Book Title: Nidi Sangaho
Author(s): Sunilsagar
Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur

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Page 22
________________ आऊ तेजो बलं विजा, पण्णा धणं महाजसो । पुण्णं सुपीदीमत्तं च, णस्सेंति हि अबंभदो ॥२४|| अन्वयार्थ- (अबंभदो) अब्रह्मचर्य से, (आऊ तेजो बलं विजा पण्णा धणं महाजसो पुण्णं) आयु, तेज, बल विद्या, प्रज्ञा, धन, संपत्ति महायश-पुण्य (च) और (सुपीदीमत्तं) अत्यन्त प्रीतिमत्ता (हि) निश्चित ही (णस्सेंति) नष्ट हो जाते हैं । भावार्थ- अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन सेवन से (कुशील से) आयु तेज, शारीरिक शक्ति, विद्या, प्रज्ञा, धन-सम्पत्ति, महायशमहान् ख्याति, पुण्य और लोक से प्राप्त अत्यन्त प्रेम पात्रता का निश्चित ही विनाश हो जाता है । अत: मैथुन सेवन से बचना चाहिए । यदि ऐसी क्षमता नहीं है तो कम से कम परस्त्रियों से तो दूर रहना ही चाहिए। मणे मुच्छाकरं माया, चिंतादि-दुह-सायरं । तिण्हाबल्लीइ णीरं च, चत्तेज्जए परिग्गहं ॥२५॥ ___ अन्वयार्थ- (मणे मुच्छाकरं) मनमें मूर्छा करने वाले, (माया) माया को बढ़ाने वाले (चिंतादि-दुह-सायरं) चिंतादिदु:खों के सागर (च) और (तिण्हाबल्लीए णीरं) तृष्णारूपी बेल को बढ़ाने के लिए जल के समान (परिग्गह) परिग्रह को (चत्तेज्जए) छोड़ो । भावार्थ- मन में ममत्व, माया-चंचलता, दुष्कृत्य करने की भावना उत्पन्न करने वाले, चिंता, शोक आदि दु:खों के समुद्र के समान और लोभरूपी बेल को बढ़ाने के लिए पानी के समान परिग्रह को अवश्य ही छोड़ देना चाहिये। यदि कोई परिग्रह का पूरी तरह त्याग नहीं कर सकता तो उसे कम से कम मर्यादा तो बना ही लेना चाहिये । लच्छी दुहेण. पत्तेदि, हिदा दुक्खण रक्खदे । तण्णासेण महादुक्खं, लच्छिंदुक्खणिहिं धिगो ॥२६॥ ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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