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के अनुसार तत्त्व दो हैं - जीव तथा अजीव । दूसरी शैली के अनुसार तत्त्व सात हैं - जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । तीसरी शैली के अनुसार तत्त्व नौ हैं - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष । दार्शनिक ग्रन्थों में प्रथम तथा द्वितीय शैली मिलती है जबकि आगम साहित्य में तृतीय शैली के दर्शन होते हैं । भगवती, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन आदि में तत्त्वों की संख्या नौ बतायी गयी है परन्तु स्थानांग में दो राशि का उल्लेख है - जीव-राशि, अजीव-राशि । आचार्य नेमिचन्द्र ने भी द्रव्य संग्रह में तत्त्व के दो भेद प्रतिपादित किये हैं - जीव तथा अजीव । आचार्य उमास्वाति ने पुण्य तथा पाप को आश्रव या बंध तत्त्व में समाविष्ट कर तत्त्वों की संख्या सात मानी है।
एक जिज्ञासा सहज ही हो सकती हैं कि जब जीव और अजीव इन दो तत्त्वों में ही संपूर्ण तत्त्व-सार समाविष्ट हो सकता है, तब नौ तत्त्वों का विस्तार क्यों किया गया? इसका समाधान यों किया जा सकता है कि वस्तु को स्मृति में स्थापित करने की दृष्टि से भले ही समास (संक्षिप्त) शैली उपयुक्त हो परंतु बोध के लिये तो व्यास (विस्तार) शैली ही उपयुक्त है। यही कारण है कि शास्त्रकारों ने और उसके बाद अनेक आचार्यों ने वही . शैली अपनायी है।
अद्यावधि पर्यंत प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी व गुजराती भाषा में नवतत्त्व पर अनेकानेक स्वतंत्र ग्रन्थों का निर्माण हुआ है।
नवतत्त्व प्रकरण की स्वतंत्र रचने करने-वालों में आचार्य उमास्वाति, देवेन्द्रसूरि, देवगुप्तसूरि, जयशेखरसूरि आदि के नाम प्रमुख रुप से उल्लेखनीय है । मूल नवतत्त्व प्रकरण पर विस्तृत वृत्ति की रचना भी अनेक श्रुतधरों द्वारा की गयी है । श्रीमद् देवेन्द्रसूरि, कुलमंडनसूरि, महोपाध्याय समयसुन्दरगणि आदि ने जहाँ नवतत्त्ववृत्ति का निर्माण किया है, वहीं साधुरत्नसूरि, श्री मानविजयगणि, श्री विजयोदयसूरि ने अवचूर्णि के लेखन द्वारा नवतत्त्व विषयक विवेचन प्रस्तुत किया है। श्री देवगुप्तसूरि रचित नवतत्त्व प्रकरण पर नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने भाष्य की रचना की है और उसी भाष्य पर उपाध्याय श्री यशोविजयजी म.ने वृत्ति का निर्माण
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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