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अनुभूत-स्वर
भारतीय साहित्य में तत्त्व के संबंध में गहन और सूक्ष्म दृष्टि से अनुशीलन - परिशीलन हुआ है । 'तत्त्व' शब्द का निर्माण 'तत्' शब्द से हुआ है, जो संस्कृत भाषा में सर्वनाम शब्द है । सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थ के वाचक होते हैं। शब्द तत् से भाव अर्थ में 'त्व' प्रत्यय लगकर 'तत्त्व' शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है – उसका भाव 'तस्य भावः तत्त्वम्' । अतः वस्तु के स्वरूप को और स्वरूपभूत वस्तुं को तत्त्व कहा जाता है । दर्शन के क्षेत्र में तत्त्व शब्द गंभीर चिन्तन प्रस्तुत करता है, ऐसा कहने की अपेक्षा यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि चिन्तन-मनन का प्रारंभ तत्त्व से ही होता है । द्वादशांगी की रचना का मूल - बीज है - 'किं तत्त्वम्' तत्त्व क्या है ? यही जिज्ञासा दर्शन के उद्भव का आधार है ।
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लौकिक दृष्टि से तत्त्व शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे वास्तविकता, यथार्थता या सारांश । दार्शनिकों ने प्रस्तुत अर्थ को स्वीकार कर हुए भी परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर- अपर, शुद्ध, परम आदि के लिये भी तत्त्व शब्द को प्रयुक्त किया है । वेदों में ईश्वर या ब्रह्म के लिये तत्त्व शब्द का उपयोग किया गया है। सांख्य मत में जगत के मूल कारण के रूप में तत्त्व शब्द का प्रयोग हुआ है I
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सभी दर्शनों ने अपनी-अपनी दृष्टि से तत्त्वों का निरूपण करते हुए यह मन्तव्य भी प्रस्तुत किया है कि जीवन में तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन और तत्त्व एक दूसरे के पर्याय हैं। जीवन से तत्त्व को पृथक् नहीं किया जा सकता और तत्त्वं के अभाव में जीवन गतिशील नहीं हो सकता । जीवन से तत्त्व को पृथक् करने का अर्थ है - आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करना ।
समस्त भारतीय दर्शन तत्त्व के आधार पर ही खडे हुए हैं। आस्तिक दर्शनों में से प्रत्येक दर्शन ने अपनी-अपनी परम्परा और कल्पना के अनुसार तत्त्व - मीमांसा की स्थापना की है । न्यायदर्शन ने तत्त्व के रूप में सोलह श्री नवतत्त्व प्रकरण
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