Book Title: Navtattva Prakaran
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Ratanmalashree Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ कारण । 1 इस ममत्व और अ-तत्व के प्रति लगाव के दुष्चक्र को भेदना अतिदुष्कर है । इसलिये परमात्मा महावीर जगत के जीवों को पुनः पुनः यही संदेश देते हैं कि तत्त्व को जानो । तत्त्व को जानकर, मानकर उसके रहस्य को उपलब्ध करो । और जब तत्त्व का स्वरुप, रहस्य और खजाना हाथ लग जाता है, तब वह जीव परम समाधि को उपलब्ध हो जाता है । फिर न राग रहता है, न द्वेष । वीतरागता का प्रकाश उतर आता है आत्मा के असीम धरातल पर । संपूर्ण जगत पर दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि इस जगत में मुख्यतः दो ही तत्व हैं - एक जीव तत्व और दूसरा अजीव तत्व । तत्वज्ञान को सरल बनाने के लिये आगमों में नवतत्त्वों को निरूपित किया गया है । प्रश्न हो सकता है कि तत्वार्थ सूत्र में तो सात तत्त्वों का ही वर्णन है | समाधान यह है कि उसमें आश्रव तत्व का जो वर्णन है, पुण्य और पाप, इन दो तत्वों को पृथक् न मान कर उन्हें आश्रव में ही सम्मिलित, कर लिया है । इस अपेक्षा से सात भी वही हैं और नौ भी वही हैं । नवतत्त्व जैन दर्शन की आधारशिला है और रहस्य भी । जिसने नवतत्त्व को समझ लिया, समझो ! उसे जैन दर्शन समझ में आ गया । सब कुछ समाविष्ट हो गया नवतत्त्वों में । आगमों में यत्र-तत्र तत्व के परिशीलन कर पाना हर व्यक्ति के तहत निर्माण हुआ है नवतत्त्व प्रकरण का । तत्व प्रवेशी एवं तत्व को जानने की रुचि रखने वालों की रुचि को ध्यान में रखकर इस नवतत्त्व प्रकरण का ज्ञानी तत्वाचार्य ने लेखन किया है परंतु उनका नाम प्रकरण में उल्लिखित नहीं है । मणि- मुक्ता बिखरे पडे हैं परंतु उनका बस की बात नहीं हैं । इसी सोच के यह प्रकरण इतनी सुंदर शैली, सुगम भाषा एवं सहज समझ के साथ आलेखित किया गया है कि प्रारंभिक तत्वपिपासु के हृदय को छू जाता है, श्री नवतत्त्व प्रकरण १०

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 400