Book Title: Navtattva Prakaran
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Ratanmalashree Prakashan

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Page 12
________________ (आत्मीय-स्वर) जीव की जीवन यात्रा की वास्तविक शुरूआत तत्त्व-संबोधि से होती है। जब तक जीव तत्व से अनभिज्ञ है, तब तक वह केवल मिथ्यात्व और अज्ञान का ही संपोषण करता है। वह अ-तत्त्व को तत्त्व का नाम देकर, जामा पहनाकर अपने आपको तसल्ली दे सकता है परंतु झूठी । तोषानुभव कर सकता है परंतु नकली ! आनंद पा सकता है लेकिन पराया ! कागज के फूल को व्यक्ति फूल तो कह सकता है परंतु उसमें सुगंध का अनुभव कैसे किया जा सकता है ? पीलियाग्रस्त व्यक्ति को हर पदार्थ सोना नजर आता है परंतु उसमें स्वर्णत्व कैसे हो सकता है ? ऐसी मिथ्या और भ्रम भरी समझ में तत्व का उजाला और जीवन का निचोड कैसे हो सकता है ? . मुश्किल तत्व को पाने की नहीं, समझने की है। जब तक तत्व समझ का हिस्सा नहीं बनता है, तब तक ही परेशानी है । जन्म और मरण की पीडाएँ हैं । तत्त्व को समझ लेने के बाद यथार्थ की गंगा स्वतः उपलब्ध हो जाती है । ठीक वैसे ही, दही मथा नहीं कि नवनीत मिला नहीं । पर नवनीत पाने के लिये दही को मथना होता है, परिश्रम करना होता है । तत्व को पाना इसलिये सरल है कि उसे कहीं ओर से लाना नहीं है। वह बाहर से आना नहीं है। वह मेरे पास ही है। मेरे सामने ही है । बस ! दृष्टि को बदलना होता है । नयन में श्रद्धा का अंजन आंजना होता है। व्यवहार को मांजना होता है। कदमों को अपनी दिशा में मोडना होता है। चला नहीं कि पाया नहीं ! समझा नहीं कि मिला नहीं ! उतरा नहीं कि उपलब्ध हुआ नहीं ! पर इस तात्विक दृष्टि का विकास कर पाना बहुत कठिन है क्योंकि जीव अनादि-अनंतकाल से परायों में जीता जाया है मोह के कारण । पदार्थों में बंधता आया है नासमझी के कारण । अपना मानता आया है मूर्छा के श्री नवतत्त्व प्रकरण

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