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पदार्थो की विवक्षा की है - प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान । वैशेषिक दर्शन में मूल तत्त्व सात माने गये हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । सांख्य तथा योग दार्शनिक पच्चीस तत्त्वों की मीमांसा करते हैं - प्रकृति, महत्, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र) पांच कर्मेन्द्रियाँ (पायु, उपस्थ, मुख, हाथ, पाँव) पांच तन्मात्राएँ (वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द), मन, पंच महाभूत (पृथ्वी, अप, तेउ, वायु, आकाश) और पुरुष । मीमांसा दर्शन वेदविहित कर्म को सत् और तत्त्व मानता है। वेदान्त दर्शन एकमात्र ब्रह्म को ही सत् मानता है। बौद्धदर्शन ने चार आर्य-सत्य की स्थापना की है - १. दुःख, २. दुःखसमुदय, ३. दुःख-निरोध, ४. दुःख-निरोध मार्ग । इन आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त भौतिकवादी चार्वाक दर्शन भी पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि, ये चार तत्त्व मानता है । वह आकाश को नहीं मानता क्योंकि उसका ज्ञान प्रत्यक्ष न होकर अनुमान से होता है। . तत्त्व जैनदर्शन का मूल आधार है । जैनदर्शन का विराट महल तत्त्व की गहरी और सुदृढ नींव पर टिका हुआ है। तत्त्व ही अध्यात्म की प्राणपूँजी है। जिसने तत्त्व अर्थात् यथार्थ स्वरूप को समझ लिया, उसने जीवन का रहस्य समझ लिया ।।
जैन साहित्य में विभिन्न स्थलों पर सत्, सत्त्व, तत्त्व, तत्त्वार्थ, अर्थ, पदार्थ और द्रव्य-इन शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है । आचार्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र में तत्त्वार्थ, सत् और द्रव्य शब्द का प्रयोग तत्त्व अर्थ में किया है अतः जैनदर्शन में जो तत्त्व है, वह सत् है और जो सत् है, वह द्रव्य है।
सत् क्या है ? तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार जो उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य युक्त है, वही सत् है, सत्य है, तत्त्व है, द्रव्य है।
तत्त्व कितने है ? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों का आलोडन करने पर विभिन्न संख्या में उपलब्ध होता है । संक्षेप तथा विस्तार की दृष्टि से तत्त्व के प्रतिपादन की मुख्य रूप से तीन शैलियाँ है। एक शैली श्री नवतत्त्व प्रकरण
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