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फ़िलहाल वह फिर से पौराणिक कहानियों की एक सीरीज़ लिख रहा है, जिसमें शलाका-पुरुषों के माध्यम से वह सम्भाव्य संयुक्त मनुष्य ( Integrated Man ) की एक जीवनपरक 'इमेज' रच रहा है। अध्यात्म को वह ऐन्द्रिक-मानसिक चेतना के स्तर पर उतार रहा है। वह भगवान् महावीर पर एक उपन्यास लिखने में संलग्न है। और अपने इस नय सृजन-लाहल (Enterprize) द्वारा वह, प्रासंगिकता और ऐतिहासिकता के क्रिया-प्रतिक्रियाजनित दुश्चक्र को भेदकर, नयी मानवसत्ता (New Being) के अनावरण, आविर्भाव और आविष्कार के लिए, एक भगीरथ आत्म-मन्थन कर रहा है। निरे घिसे-पिटे वर्तमान और प्रचलन को वह आधुनिकता मानने से इनकार करता है। उसके लेखे आत्म (self) और वस्तु के मौलिक स्वरूप का यथार्थ ज्ञान पाकर, अनुक्षण उसकी संगति में जीना ही सच्ची आधुनिकता है। इसी स्वरूप साक्षात्कार द्वारा पहल की जा सकती है, नया रास्ता खोला जा सकता है, नये मनुष्य को रचा जा सकता है।
देश और काल से इनकार सम्भव नहीं । जीवन जगत् उन्हीं में व्यक्त और विकासमान है। पर देश-काल के अधीन होकर नहीं, उनकी सीमा से ग्रस्त होकर नहीं, बल्कि उन्हें अपने अधीन करके, अपने उत्सीय आत्म-चैतन्य की पहल के साथ ही, हम अपना अभीष्ट जीवन देश-काल में रच सकते हैं। इसी से आत्मगत पहल ( Initiative) से अधिक महत्त्वपूर्ण मेरे लिए कुछ भी नहीं। वर्तमान के पिष्टपेषण और उसके प्रति अवश समर्पण से वह पहल सम्भव नहीं । वर्तमान से उत्तीर्ण होकर, जो नयी चेतना उत्सित कर रहा है, वही अत्याधुनिक और आगामी कल का लेखक
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है और वर्तमान में अकेले पड़ जाना, और अनपहचाने रह जाना, ऐसे लेखक की अनिवार्य नियति होती है। 'मुक्तिदूत' के लेखक ने स्वेच्छतथा वह रास्ता चुना है : वह ख़तरा उठाया है।
गत सत्ताईस बरसों में यह उपन्यास, एक विचित्र संयोग से गुजरा। हिन्दी के लेखक, आलोचक और इतिहासकार ने इसे उल्लेख योग्य तक नहीं समझा। अपने कथ्य में यह एक आध्यात्मिक और दार्शनिक मिजाज को कृति है। रूप-तन्त्र में यह पर्याप्त रूप से प्रयोगशील हैं। हिन्दी उपन्यास में जब प्रयोगशीलता लगभग अनजानी थी, तब 'मुक्तिदूत' के लेखक ने काफ़ी सूक्ष्य मनोवैज्ञानिक, चेतना प्रवाह के चित्रक और प्रतीकात्मक व्यंजना के उद्योतक प्रयोग इस कृति में किये थे। इतनी सूक्ष्मता और चेतना स्तरों की गहन अन्वेषणशीलता, इससे पूर्व हिन्दी उपन्यास में विरल ही देखने में आती है। मतलब कुल मिलाकर यह उपन्यास, एक खासी दुरूह रचना है। फिर भी अजीब बात है कि केवल हिन्दी प्रदेशों में ही नहीं, बल्कि पंजाब से लगाकर सुदूर पूर्व में असम तक और दक्षिण में तमिलनाडु, आन्ध्र और केरल तक के हिन्दी-प्रेमी
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