Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ आश्चर्यजनक हकीक़त है कि चिरकाल के अन्तर्द्रष्टा भारत के आज के लेखकों से, आधुनिक पाश्चात्य लेखक में कहीं बहुत अधिक गहरी अवगाहन-क्षमता (Probing), सूक्ष्म संवेदनशीलता और अन्तश्चेतना के गहनतर, विशाल और अमूर्त चेतना-स्तरों का अन्वेषण करने की क्षमता पायी जाती है। क्या आधनिक लेखन के पिछले तीस बरसों के दौर में हम एक भी मलाम, बौदलेयर, रिम्बो, हेनरी प्रस्त, डी. एच. लरिंस, जॉयस या वर्जीनिया वल्फ़ जैसा मौलिक अन्तर्दशी सर्जक पैदा कर सके हैं। उनके 'फ़ॉर्म' की नक़ल हमने भले ही की हो, पर उनके हार्द से हम अछूते ही रह गये। लगता है कि पिछले एक हजार वर्ष की गुलामी से भारतीय बौद्धिकता इतनी परमुखापेक्षी, अन्धी, सतही, स्थूल और अमौलिक हो गयी है कि अपनी स्वतन्त्र चेतना से, ज्ञान और सृजना के क्षेत्रों में कोई नया उपोद्घात करने की न तो उसके पास कोई मौलिक अन्तर्दृष्टि रह गयी है और न वैसी साहसिकता। आदिकाल के पारद्रष्टा, अध्यात्मता भारत के आधुनिक लेखक की यह निरी कालधर्मिता और रोटीजीवी प्रासंगिकता सचमुच अत्यन्त व्यंग्यास्पद और दयनीय है। अत्याधुनिक भारतीय लेखक, इस दुराग्रह से अभिभूत और अन्धा हैं कि यधार्थ केवल जीवन की भौतिक वास्तविक समस्याएं और संघर्ष है। यथार्थ केवल सरकार, राजनीति, शोषक और गलत आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था है। यथार्थ केवल उदर और काम की भूख-प्यासें हैं। इसके अतिरिक्त देह-प्राण-इन्द्रिय-मन के निरे स्थूल अवबोधन से परे, जो एक अन्तश्चेतनिक अन्तर्दृष्टि का कल्पना-स्वानमूलक, मौलिक अवबोधन है, जो स्व और पर का एक आत्मानुभूतिक साक्षात्कार है, वह महत खामख्याली है, अयथार्थ है, मरीचिका है, मिथ्या-विलास है। हिन्दी में ऐसे चोटी के आधुनिक लेखकों की कमी नहीं, जो पौराणिक रचना को सारहीन, निरर्थक कल्पना-विहार मानते हैं। ये नहीं जानते कि जिस प्रासंगिक यथार्थ-भोग में ने इतने व्यस्त और उलझे हैं, उसके दुश्चक्री कदमको चिरकाल साहित्य में उलीचते रहकर, उतसे निस्तार नहीं पाया जा सकेगा। जो लेखक प्रासंगिकता से ऊपर उठकर, प्रज्ञा के आत्मस्थ धरातल पर आसीन होकर, अपनी अन्तदृष्टि के प्रकाश द्वारा पहल करके, प्रासंगिकता के इस दुश्चक्र को भेदेगा, वही प्रासंगिक समस्याओं को सही पाने में सुलझाने में समर्थ हो सकेगा। ऐसा ही सर्जक, मनुष्य को मौलिक संवादिता और संगतियों के सुख-शान्तिपूर्ण चेतनास्तर पर अतिक्रान्त और उत्क्रान्त कर सकेगा। आज से सत्ताईस वर्ष पहले 'मुक्तिदूत' के चिर-अवहेलित और अनपहचाने रचनाकार ने, इस सत्य को बूझा और पहचाना था। साहित्य में आज तक अस्वीकृत रहने का खतरा उठाकर भी, उसने अपनी रचना के लिए द्रष्टा का यह धरातल चुना है। आज भी वह उसी धरातल पर एकाग्र और अबाध चित्त से रचना कर रहा है। :: 20::

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