Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ की उत्तरोत्तर अन्तर्मुख हो रहो सृजन-यात्रा का स्पष्ट आभात पा लिया था। सो अनायास उसने अपने आपको भी भीतर की ओर मुड़ते पाया। यूरोप के अग्रणो लेखक जन मानव-मंगल की खोज में रूस की तीर्घयात्रा से निराश लौट चुके थे, तब चालीसी के उन बरसों में भारत के लेखक और खासकर हिन्दी के करि, एक सिरे से अपने काम में लाल झण्डे का जयगान कर रहे थे। 'मुक्तिदूत' का युवा लेखक, 'भारतीय लेखक के इस पिछड़ेपन और भेड़िया-धंसान को देखकर हैरान था। वह प्रवाह में न बह सका। उसन लाल झण्डे की काविता लिखने से इनकार कर दिया। उसे स्पष्ट प्रतीति हुई कि वैयक्तिक अहं-स्वार्थ और राग-द्वेष से उत्पन्न क्रिया-प्रतिक्रिया के दुश्चक्र को अपनी चेतना में कहीं तोड़े बिना, नया और सही रास्ता नहीं खुल सकता। उसे साफ़ दीखा कि इसके लिए उसे साहसपूर्वक पहल करनी होगी। उसे अनर्गल बहाव से ऊपर उठकर उसको प्रतिरोध देना होगा। भीतर इसकी मारकर उसके मूल में घुसकर, धारा के इस दुश्चक्र को तोड़ना होगा। उसकी टोटल निष्फलता का तट इसके लिए अनुकूल सिद्ध हुआ। ___वहाँ से उसे साफ़ दीखा कि समस्या महज्ञ तात्कालिक नहीं, प्रासंगिक नहीं, वह निरी वस्तुगत नहीं, बल्कि आत्मगत है, चेतनागत है। चैतन्य व्यक्ति को कहीं, इस जड़त्व की कुण्ठा से ऊपर उठकर, अपने स्वायत्त स्वरूप को पहचानना होगा। उस पहचान की रोशनी में पहले अपने को ठीक करना होगा, आत्मस्थ और आत्म-स्वामी होना पड़ेगा। सार्वभौमिक हिंसा के उस जंगल में, गाँधी की अकेलो पड़ गयी आवाज़ में, उसे रास्ता दीखा। उसने भी अकेले पड़ जाने का खतरा उठा लिया। वह रास्ते की खोज में भीतर चला गया। वह अपने ही द्वारा प्रज्वलित हिंसा की लपटों में जल रही बाहरी दुनिया से पीठ फेरकर, लाल झण्डे की नारेबाजी से बरतरफ़ होकर, 'मुक्तिदूत' रचने को बैठ गया। वह शाश्वत संवादिता (Harmony) के अन्तर्जगत् की खोज में चला गया। यह सनू '44-15 की बात है। कॉमरेड मुक्तिबोध ने कहा- 'यह आत्मरति है, वीरेन, यह वास्तविकता से पलायन है। यह निष्क्रिय आत्मविलास हैं। यह रोमानी, वायवीय खामख्याली है। यह थोथी आदर्शवादिता है। यह युग और इतिहास से मुँह मोड़ना है। यह आउट-मोडेड है।' वीरेन मुसकराकर चुप हो रहा। जिस पश्चिम का अन्धानुकरण ये सब कर रहे थे, उस पश्चिम में ही आरम्भ हो चुके अन्तर्मुखी सूजन के पुनरुत्थान को वीरेन पहचान रहा था। मुक्तिबोध को तब उसने यह आगाही दी थी-'अगला साहित्य अन्तमखी होगा, अस्तित्व-मूलक होगा, अन्तश्वेतनिक होगा, कामरेड मुक्तिबोध' मुक्तिबोध ने वीरेन का मजाक उड़ा दिया। वीरेन खामोश रहा : अपना काम वह चुपचाप करता चला गया।... जो मैंने कहा था, वह सच हुआ। पश्चिम का सर्जक एक सिर से अन्तर्मुख, अन्तश्चेतना का मुतलाशी होता चला गया। बाहर की सारी यवस्थाओं के प्रति, 1. 1४::

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