Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ प्रस्थापना (तीसरे संस्करण से) आज से सत्ताईस वरस पहले, एक अट्ठाईस बरस के युवक का मुक्तिदूत' लिखते देख रहा हूँ। देख रहा हूँ कि महज़ टेबल पर बैठकर उसने यह कृति नहीं लिखी। अंजना और पवनंजय के मौलिक वियोग को सजने के लिए, वह कई दिन भीतर की राह कैलास और मानसरोवर की हिमावृत वीरानियों में भटका। फिर उनके परिपूर्ण मिलन को साक्षात् करने के लिए, वह कई-कई रातों जागकर अपने एकाकी बिस्तर में छटपटाता रहा। बाहर की दुनिया में, देह-प्राण-मन के स्तरों पर, उस मिलन की सार्थकता उसे नहीं दीखी। सो चेतना के इन स्थूल प्रान्तरों को भेदने की कोशिश में, वह बाहर से सर्वथा विमुख होकर, अपनी आन्तरिक विरह-व्यथाओं में रात-दिन तपला रहा । अंजना के वनवास को चित्रित करने के लिए वह हफ्तों कई वियाबानों में भटका । उसे एक ऐसे समग्र, विराट और तात्त्विक पर्वतारण्य की खोज थी, जहाँ वह अंजना के क्षुद्र सामाजिक नैतिकता से घटित निर्वासन को, एक आत्मिक अतिक्रान्ति, निर्गति और मुक्ति के रूप में परिणति पा सके। उसकी यह तपोवेदना कृतकाम हुई। अंजना और पवनंजय के परिपूर्ण मिलन की रात्रि उसे सांगोपांग एक स्वप्न में उपलब्ध हो गयी। और अपनी भटकन में एक दिन वह अंजना की आन्तरिक मुक्ति के तात्विक तपोवन को भी इसी पृथ्वी पर पा गया। ___ 'मुक्तिदूत' का वह युवा लेखक, तब अपने जीवन में भी चौतरफा अभावों की गहरी खन्दनों से घिरा था। स्वजन-विछोह के घाव से उसका हृदय टीस रहा था। उसकी संवेदनाकुल आत्मा की, परम मिलन की अन्तहीन पुकार अनुत्तरित थी। आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी पहलुओं में वह नितान्त सर्वहारा था। मानवीय अह-स्वार्थ का नग्न रूप वह देख चुका था। मानव-सम्बन्धों की सीमा और निष्फलता को उसने पहचान लिया था। एक अथाह अँधेरी खन्दक़ के किनारे वह अकेला खड़ा था। उधर दृत्तरा महायुद्ध मनुष्य की जड़ें हिला रहा था। उसकी सर्वभक्षी लपटों की रोशनी में, उसने सतही आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक क्रान्तियों और समायोजनों द्वारा, सुखी और शान्तिपूर्ण विश्व-रचना के प्रयत्नों की चरम निष्फलता को बूड़ा लिया था। अपनी दुरन्देश दृष्टि से उसने, बाहर से हताश पश्चिमी लेखकों ::17::

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