Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ मन में व्याप्त है। विशेष भाव के तदनुकूल चित्रण के लिए शब्द-विशेष सहज ही आ जाता है और कभी-कभी कोश (Vocabulary) का भाषा-अभेद अनिवार्य हो जाता है। 'मुक्तिदूत' में भी ऐसा ही हुआ है। प्रवाह में आये हुए अनेक उर्दू शब्दों को जान-बूझकर निकाला नहीं गया है, यथा- 'परेशान', 'नजर', 'जुलूस', 'दीवानखाना', 'कशमकश', 'परवरिश', 'सरंजाम', 'दफ़ना' आदि । प्रत्येक शब्द अपने स्थान पर लक्षणा या व्यंजना की सार्थकता में स्वयंसिद्ध हैं। अँगरेजी का 'रेलिंग' शब्द लेखक ने जान-बूझकर अपनी व्यक्तिगत रुधि की रक्षा के लिए लिया है क्योंकि लेखक 'इस शब्द में लक्षित पदार्थ का एक अद्भुत चित्रण-सौन्दर्य पाता है। 'अपने बावजूद और 'जो भी' ('यपपि' के लिए) का लेखक ने बार-बार प्रयोग किया है। ये उनकी विशिष्ट शैली के अंग हैं। 'मुक्तिदूत' अविभाज्य मानवता को जिस धर्म, प्रेम और पुनित का सन्देश देता है, वह हृदय की अनुभूतियों का प्रतिफल है और इसीलिए उसका प्रतिपादन बहुत ही सीधे और सरल ढंग से हुआ है। लेखक ने बहुत गहरे डूबकर इन आबदार मोतियों का पता लगाया है। दरिया (सागर) आपके सामने है, अब आप जानें! *गौहर से नहीं दरिया खाली, फूलों से नहीं गुलशन खाली, अफ़सोस है तुझ पर दस्ते-तलव, जो अब भी रहे दामन खाली।" तहमीचन्द्र जैन झालपियानगर 12 मई, 1947 :: [G::

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