Book Title: Muktidoot Author(s): Virendrakumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ तो लीजिए, बताइए 'मुक्तिदूत' कौन है। पवनंजय? हनुमान्? अंजना? . प्रहस्त? पढ़ेिए और सोधिए। 'मुक्तिदूत' में 'रोमांस' के प्रायः सब अंग होते हुए भी यह बन गयी है प्रधानतः एक करुण-कथा । अलग-अलग प्रत्येक पात्र व्यथा का बोझ लिये चल रहा है। कथा को सार्थकता है अन्तिम अध्याय की उन अन्तिम पंक्तियों में जहाँ "प्रकृति पुरुष में लीन हो गया. पुरुष प्रकृति में उठा!' ___ पात्रों में व्याप्त व्यथा के नाना रूपों को सहानुभूति और सहवेदना की जिस अश्रु-सिक्त तूलिका से लेखक ने चित्रित किया है, उसका चमत्कार पुस्तक के पृष्ठ-पृष्ठ पर अंकित है। श्री वीरेन्द्र कुमार की शैली की यह विशेषता है कि वह अत्यन्त संवेदनशील है। पात्रों के मनोभावों और भावनाओं के घात-संघात के अनुरूप वह प्रकृति का चित्र उपस्थित करते जाते हैं। लगता है जैसे अन्तर की गूंज जगत् में छा गयी है, ह्रदय को वेदनाएँ चाँद, सूरज, फल-फूलों में रमकर चित्र बनकर प्रकृति की चित्रशाला में आ टैंगी हों। उदाहरण देखिए1. अब अंजना अकेली, विचारों में डूबी बैठी है "शेष रात के शीर्ण पंखों पर दिन उतर रहा है। आकाश में तारे कुम्हला गये हैं। मानसरोवर की घंचल लहरियों में कोई अदृष्ट बालिका अपने सपनों की जाली बुन रही है। और एक अकेलो होसनी, उस फूटते हुए प्रत्यूष में से पार हो रही है...वह नीरव हंसिनी, उस गुलाबो आलोक-सागर में अकेली ही पार हो रही थी। यह क्यों है आज अकेली?" 2. परिणय की वेला में__ “आज है परिणय को शुभ लग्न-तिथि । पूर्व की उन हरित-श्याम शैल-श्रेणियों के बीच कपा के आकुल वक्ष पर यौवन का स्वर्ण-कलश भर आया है।" 3. अंजना मातृत्व के पद पर आसीन होने को है "आकाश के छोर पर कहीं श्वेत बादलों के शिशु किलक रहे हैं।" 4. निराशा की प्रतिध्वनि "कहीं-कहीं नदी की सतह पर मलिन स्वर्णाभा में वैभव बुझ रहा था।" श्री वीरेन्द्र कुमार के स्वभाव में ध्वनि और वर्ण का सहज सम्मोहन है। अनेक छोटे-छोटे वाक्यों में उन्होंने स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध और ध्वनि की अनुभूतियों को सरस लेखनी में उतारा है। यथा1. "नारिकेत-शिखरों पर वसन्त के सन्ध्याकाश में गुलाबी और अंगूरी बादलों की झीलें खुल पड़ी हैं।' 2. "संघों में से आयी हुई कोमल धूप के धध्ये कहीं-कहीं बिखरे हैं जैसे इसPage Navigation
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