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मणिधारी दादा श्रीजिनचन्द्रसरि
.. युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी के पट्टालंकार मणिधारी दीक्षित होने के पश्चात् दो वर्ष की अवधि में ही किये श्रीजिनचंद्रसूरजो ने अपने असाधारण व्यक्तित्व एवं लोको- गये विद्याध्ययन से आपकी प्रतिभा चमक उठी। फलतः त्ता प्रभाव ने कारण अल्पायु में ही जो प्रसिद्धि प्राप्त की आपकी असाधारण मेधा, प्रभावशाली मुद्रा एवं आकर्षक वह सर्वविदित है । ये महान् प्रतिभाशाली एवं तत्त्ववेत्ता व्यक्तित्व से प्रभावित होकर दीक्षित होने के दो वर्ष पश्चात् विद्वान आचार्य थे।
ही संवत् १२०५ में वैशाख शुक्ल ६ के दिन विक्रमपुर के ____ इनका जन्म संवत् ११६१ भाद्रपद शुक्ल ८ के दिन श्री महावीर जिनालय में युगप्रधान आचार्य श्रीजिनदत्तजालमेर के निकट विक्रमपुर नगर में हुआ। इनके पिता सूरिजी ने आपको आचार्य पद प्रदान कर श्री जिनचन्द्रसुरि साह रासल जी एवं माता देल्हणदेवी थी। जन्म से ही जी के नाम से प्रसिद्ध किया। आचार्य पद का यह महाये अधिक सुन्दर थे, जिसके कारण सहज ही सर्वसाधारण महोत्सव इनके पिता साह रासलजी ने ही भव्य समारोह के प्रिय हो गये।
के साथ किया था। संयोगवश विक्रमपुर में युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी का चातुर्मास हुआ। चातुर्मास की अवधि में
युगप्रधान गुरुदेव दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी ने अपने सूरि जी के अमृतमय उपदेशों को सुनने के लिये जहाँ नगर
विनयी शिष्य श्रीजिनचन्द्रसूरि को शास्त्रज्ञान आदि के साथ वासी भारी संख्या में जाते थे. वहाँ रेल्हणदेवी भी प्रतिदिन
ही गच्छ संचालन आदि की भी कई शिक्षाएं दी।
आपने इनको विशेष रूप से यह भी कहा था कि "योगिनी-- प्रवचनामृत का पान करती हई अपने जीवन को धन्य मानती थो। देल्हण देवी के साथ उसके पुत्र (हमारे चरित्र- पुर।
पुर दिल्ली में कभी मत जाना।" क्योंकि आचार्यदेव यह नायक) भी रहते थे। एक दिन देल्हणदेवी के इस बालक
जानते थे कि वहां जाने पर श्रीजिनचन्द्रसूरि को अल्पायु के अन्तहित शुभ लक्षणों को देखकर आचार्य देव ने अपने ज्ञानवल से यह जान लिया कि "यह प्रतिभासम्पन्न बालक
संवत् १२११ में आषाढ़ शुक्ल ११ को अजमेर में श्री सर्वथा मेरे पट्ट के योग्य है । निस्सन्देह इसका प्रभाव लोको
र जिनदत्तसूरिजी का स्वर्गवास हो गया तब अल्पायु में ही त्तर होगा एवं निकट भविष्य में ही गच्छनायक का महत्व. सारे गच्छ का भार आप के ऊपर आ गया एवं अपने पूर्ण पद प्राप्त करेगा." बालक संस्कारवान तो था ही गुरुदेव के समान आप भी कुशलतापूर्वक सफलता के साथ उसका मन इतनी कम आयु के होते हुए भी विरक्ति की इस गुरुतर भार को वहन करने में लग गये। और अग्नसर होने लगा । अन्तत: विक्रमपुर से विहार करने के
गच्छ-भार को वहन करते हुए आपने विविध ग्रामों एवं पश्चात् अजमेर में सं० १२०३ फालान शक्ल नवमी के नगरों में विहार कर धर्म प्रचार करना प्रारंभ किया। दिन श्री पार्श्वनाथ विधि वैत्य में प्रतिभासम्पन्न इस बालक
फलस्वरूप आप के उपदेशों से प्रभावित होकर कई श्रावकों को आचार्यजी ने दीक्षित किया। दीक्षा के समय इस बालक एवं श्राविकाओ ने दीक्षाए ग्रहण की। की आयु मात्र ६ वर्ष की थी।
आचार्यदेव धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त ज्योतिष शास्त्र
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