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। १२० । करने के लिए ही जेनाचार्यो-मुनियों ने ब्रिया रहार किया मापिघट सरि वे पर श्री जिन चन्द्र सूरि प्रतिष्टित हुए, अर्थात् शिथिलाचार का परित्याग कर के च्यात्मक मार्ग उन्होने अपने गुरु की अस्मि इ छाको बड़े अच्छे रूप में पूर्ण का पुरद्धार किया। मध्यकालीन चेत्यवास शिथिलाचार किया। बीकानेर के मंत्री संग्राम सिंह बच्छावत की विज्ञप्ति का एक प्रवहमान श्रोत था जिसमें बड़े-बड़े आचार्य और से स० १६१३ में बीकानेर आकर उन्होंने स्पष्ट रूप से मुनिगण बहते चले गए फलतः आध्यात्मिक साधना क्षीण घोषणा कर दी कि जो साध्वाचार की ठीक से पालन करना हो गई, आडम्बर और क्रिया काण्डों का आधिक्य हो चाहते हों वे मेरे साथ रहें और जो पालन न कर सकें वे वेश गया। जनता को भी भगवान महावीर को अध्यात्मिक को न लजा कर गृहस्थ हो जाय । कहा जाता है कि उनके शिक्षाएं मिलनी कठिन हो गई। जैन संघ को अध्यात्मिक शंखनाद रे तीन सौ य'तयों मे से वेदल १६ उनके साथी प्रेरणा देने वाले क्रान्तिकारी प्राचार्यों की युग पुकारने साथी बने अवशेष सा देश परित्याग कर गृहस्थ महात्मा आचार्य हरिद्र, जिनवर सूरि, निह सूरि. जि.नदत्त सूरि मथेरण कहलाये। उपाध्याय भावहर्ष ने ब्रियोद्धार करके मणिधारी जिनचंद्रसूर, और जिनपति सूरि जैसे युगप्रधान अपने साधु समुदाय को व्यवस्थित किया जो आगे चलकर आचार्यों को जन्म दया जिन्होंने जैनचैत्यों और मुनियो के भावहर्षीय शाला के कहलाये । युगप्रधान जिन द्रसूरि का आचारों में आई हुई विकृति का प्रबल पुरुषार्थ द्वारा परिहार लोकोत्तर प्रभाव बढ़ा फलत: सम्नाट अकबर भी उनसे किया और सुविहित मनि मार्ग का पुनरद्वार किया। प्रभावित हुआ। जहाँगीर को भी अपनी अनचित ठाम
आचार्य जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवास पर एक प्रबल वापस लेनी पड़ी। जैन शास्न का वह स्वर्ण युग था, उस चोट करके उसकी जड़ें हिला दी जिनवल्लभ और जिनदत्त समय अनेक विद्वान हुए जिनके साहित्य ने जनधर्म का सूरिजी ने जगह-जगह घूमकर जनता में जागृति पदाकर गौरव बढ़ाया। युग परिवर्तन कर डाला और जिनपतिसुरिजी ने तो रही आचार्य जिनराजसूरि के बाद फिर साध्वाचार सही शिथिलाचार को प्रवृत्तियों का बड़े बड़े आचार्यो से पालन में थोड़ी शिथिलता आगई अतः श्रीजिन रत्तसुरिजी लोहा लेकर नाम शेष ही कर डाला।
पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने फिर से नये नियम बनाए। जिनराजसूरि मानव स्वभाव की कमजोरी के कारण शनैः शनैः और जिनचन्द्रसूरि के मध्यकाल में ही सुप्रसिद्ध अध्यात्म शिथिलाचार फिर बढ़ता गया और समय-समय पर सुविहित अनुभव योगी आनन्दघनजी हुए जिनका मूल नाम आचार को प्रतिष्ठित करने के लिए क्रियोद्धार की परम्परा लाभानन्द जी था। वे मूलतः खरतरगच्छ के थे। मेड़ता भी चलती रही। सोलहवीं शताब्दी में तपागच्छ के मेंही जन्म और उच्च आत्म साधनरत विचर कर मेडता आनन्दविमलमूरि आदि ने क्रियोद्धार किया तब खरतरगच्छ में हो स्वर्गवासी हुए। उनका उपाय आज भी वहाँ के जिनमाणिक्यसूरि ने भी आचार शैथिल्य को दूर करने मौजूद है । परमगीतार्थ आचार्य कृपाचन्द्रसूरि जी ने योगकी प्रबल भावना की और इसके लिए देरावर पूज्य दादा निष्ठ आचार्य बुद्धिसागर जी को आनन्दघन जो के मूलतः जिनकुशलसूरि जी के मङ्गलमय आशीर्वाद के लिये प्रस्थान खरतरगच्छीय होने की जो बात कही थी उसकी पुष्टि किया पर मार्ग में ही स्वर्गवास हो जाने से उनकी भावना आगम-प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्य विजयजी को प्राप्त खरतर मूर्त रूप न ले सकी इस समय खरतरगच्छ के उपाध्याय गच्छोय श्री पुण्य कलश गणि के शिष्यों को लाभानन्दजी कनकतिलक ने क्रियोद्धार किया । सं० १६१२ में श्रीजिन के अष्टसहस्री पढ़ाने के उरलेख द्वारा भी हो गई है ।
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